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[प्रश्नव्याकरणसूत्र :श्रु. २, अ. ३ ____ इस प्रकार सम्मिलत भोजन के लाभ में समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गतिहेतु पापकर्म से विरत होता है और दत्त एवं अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है ।
पंचमी भावना : सार्मिक-विनय
१३९–पंचमगं साहम्मिए विणनो पउंजियव्वो, उवगरणपारणासु विणलो पउंजियव्वो, वायणपरियट्टणासु विणो पउंजियव्वो, दाणगहणपुच्छणासु विणो पउंजियव्वो, णिक्खमणपवेसणासु विणो पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसएसु विणो पउंजियन्वो । विणो वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणो पउंजियव्वो गुरुसु साहुसु तवस्सीसु य ।
एवं विणएण भाविनो भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरणं करण-कारावण-पावकम्मविरए वत्तमणुण्णाय उग्गहरुई।
१३९–पाँचवीं भावना सार्मिक-विनय है। सार्मिक के प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए। (रुग्णता आदि की स्थिति में) उपकार और तपस्या की पारणा पूत्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए । वाचना अर्थात् सूत्रग्रहण में और परिवर्तना अर्थात् गृहीत सूत्र की पुनरावृत्ति में विनय का प्रयोग करना चाहिए। भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि अन्य साधुओं को देने में तथा उनसे लेने में और विस्मृत अथवा शंकित सूत्रार्थ सम्बन्धी पृच्छा करने में विनय का प्रयोग करना चाहिए । उपाश्रय से बाहर निकलते और उसमें प्रवेश करते समय विनय का प्रयोग करना चाहिए । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों कारणों में (कार्यों के प्रसंग में) विनय का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि विनय भी अपने आप में तप है और तप भी धर्म है । अतएव विनय का आचरण करना चाहिए।
विनय किनका करना चाहिए? गुरुजनों का, साधुओं का और (तेला आदि) तप करने वाले तपस्वियों का।
इस प्रकार विनय से युक्त अन्तःकरण वाला साधु अधिकरण–पाप के करने और करवाने से विरत तथा दत्त-अनज्ञात अवग्रह में रुचिवाला होता है। शेष पाठ का अर्थ पूर्ववत समझ लेना चाहिए।
विवेचन-तृतीय व्रत की पाँच भावनाएँ (सूत्राङ्ग १३५ से १३९ तक) प्रतिपादित की गई हैं । प्रथम भावना में निर्दोष उपाश्रय को ग्रहण करने का विधान किया गया है । आधुनिक काल में उपाश्रय शब्द से एक विशिष्ट प्रकार के स्थान का बोध होता है और सर्वसाधरण में वही अर्थ अधिक प्रचलित है। किन्तु वस्तुतः जिस स्थान में साधुजन ठहर जाते हैं, वही स्थान उपाश्रय कहलाता है । यहाँ ऐसे कतिपय स्थानों का उल्लेख किया गया है जिनमें साध ठहरते थे। वे स्थान हैं . देवकलदेवालय, सभाभवन, प्याऊ, मठ, वृक्षमूल, बाग-बगीचे, गुफा, खान, गिरिगुहा, कारखाने, उद्यान, यानशाला (रथादि रखने के स्थान), कुप्यशाला-घरगृहस्थी का सामान रखने की जगह, मण्डप, शून्यगृह, श्मशान, पर्वतगृह, दुकान आदि ।