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________________ २०४] | प्रश्नव्याकरणसूत्र : भु. २, अ. ३ रूप दो प्रकार का है - शरीर की सुन्दरता और सुविहित साधु का वेष । जो साधु सुविहित तो न हो किन्तु लोगों को अपने प्रति आकर्षित करने के लिए, अन्य साधुनों की अपेक्षा अपनी उत्कृष्टता प्रदर्शित करने के लिए सुविहित साधु का वेष धारण कर ले-मैला चोलपट्ट, मैल से भरा शरीर, सिर्फ दो पात्र आदि रख कर विचरे तो वह रूप का चोर कहलाता है । इसी प्रकार श्राचारस्तेन और भावस्तेन भी समझ लेने चाहिए । शेष पदों की सुबोध होने से व्याख्या करना अनावश्यक है । अस्तेय के आराधक कौन ? १३२ - ग्रह केरिसए पुणाई प्राराहए वयमिणं ? जे से उवहि भत्त- पाण-संगहण - दाण-कुसले श्रच्चंत बाल- बुब्बल - गिलाण वुड्ढ खवग-पवत्ति प्रायरिय उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सी - कुल-गण-संघचेट्ठेय णिज्जरट्ठी वेयावच्चं प्रणिस्तियं दसविहं बहुविहं करेइ, ण य श्रचियत्तस्स गिहं पविस, ण चित्तस्स गिoes भत्तपाणं, ण य श्रचियत्तस्स सेवइ पीढ-फलग सिज्जा- संथारग-वत्थ-पाय- कंबल - दंडग - रयहरण- णिसिज्ज - चोलपट्टय मुहपोत्तियं पायपु छणाइ - भायण-भंडोवहिउवगरणं ण य परिवार्य परस्स जंप, ण यावि दोसे परस्स गिरहइ, परववएसेण वि ण किंचि गिण्हs, ण य विपरिणामेइ किंचि जणं, ण यावि नासेइ दिण्णसुकयं दाऊणं य ण होइ पच्छाताविए संभागसीले संग्गहोवग्गहकुसले से तारिसए राहए वयमिणं । १३२ - प्रश्न – (यदि पूर्वोक्त प्रकार के मनुष्य इस व्रत की आराधना नहीं कर सकते ) तो फिर किस प्रकार के मनुष्य इस व्रत के आराधक हो सकते हैं ? उत्तर- इस अस्तेयव्रत का आराधक वही पुरुष हो सकता है जो - वस्त्र, पात्र आदि धर्मोषकरण, आहार- पानी आदि का संग्रहण और संविभाग करने में कुशल हो । जो अत्यन्त बाल, दुर्बल, रुग्ण, वृद्ध और मासक्षपक यदि तपस्वी साधु की, प्रवर्त्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नवदीक्षित साधु की तथा साधर्मिक- लिंग एवं प्रवचन से समानधर्मा साधु की, तपस्वी, कुल, गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा करने वाला हो । निर्जरा का अभिलाषी हो- कर्मक्षय करने का इच्छुक हो, जो अनिश्रित हो अर्थात् यशकीर्त्ति आदि की कामना न करते हुए पर पर निर्भर न रहता हो, वही दस प्रकार का वैयावृत्य, अन्नपान आदि अनेक प्रकार से करता है । वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता और न प्रीतिकारक के घर का आहार- पानी ग्रहण करता है । श्रप्रीतिकारक से पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, ग्रासन, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका एवं पादप्रोंछन भी नहीं लेता है । वह दूसरों की निन्दा ( परपरिवाद) नहीं करता और न दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है । जो दूसरे के नाम से ( अपने लिए) कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न किसी को दानादि धर्म से विमुख करता है, दूसरे के दान आदि सुकृत का अथवा धर्माचरण का अपलाप नहीं करता है, जो दानादि देकर और वैयावृत्य आदि करके पश्चात्ताप नहीं करता है, ऐसा प्राचार्य, उपाध्याय श्रादि के लिए संविभाग करने वाला, संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही इस अस्तेयव्रत का धक होता है ।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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