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सत्यमहाव्रत की पाँच भावनाएँ]
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स्थावर जीव जिह्वा से सर्वथा वंचित होते हैं । वे बोल ही नहीं सकते। द्वीन्द्रियादि जीव जिह्वा वाले होते हुए भी व्यक्त वाणी नहीं बोल सकते । व्यक्त और सार्थक वाणी मनुष्य को ही प्राप्त है । किन्तु क्या यह वाणीवैभव यों ही प्राप्त हो गया? नहीं, इसे प्राप्त करने के लिए बहुत बड़ी पुण्यराशि खरचनी पड़ी है। विपूल पूण्य की पूजी के बदले इसकी उपलब्धि हुई है। अतएव मनुष्य की वाणी बहुमूल्य है । धन देकर प्राप्त न की जा सकने के कारण वह अनमोल भी है।
विचारणीय है कि जो वस्तु अनमोल है, जो प्रबलतर पुण्य के प्रभाव से प्राप्त हुई है, उसका उपयोग किस प्रकार करना उचित है? यदि कोई मनुष्य अपनी वाणी का प्रयोग पाप के उपार्जन में करता है तो वह निश्चय ही अभागा है, विवेकविहीन है । इस वाणी की सार्थकता और सदुपयोग यही हो सकता है कि इसे धर्म और पुण्य की प्राप्ति में व्यय किया जाए । यह तभी सम्भव है जब इसे पापोपार्जन का निमित्त न बनाया जाए।
इसी उद्देश्य से सत्य को महाव्रत के रूप में स्थापित किया गया है और इससे पूर्व सत्य की महिमा का प्रतिपादन किया गया है।
अब प्रश्न यह उठ सकता है कि असत्य के पाप से बच कर सत्य भगवान की आराधना किस प्रकार की जा सकती है ? इसी प्रश्न के समाधान के लिए पाँच भावनाओं की प्ररूपणा की गई है । सत्य की प्राराधना के लिए पूर्ण रूप से असत्य से बचना आवश्यक है और असत्य से बचने के लिए असत्य के कारणों से दूर रहना चाहिए। असत्य के कारणों की विद्यमानता में उससे बचना अत्यन्त कठिन है, प्रायः असंभव है। किन्तु जब असत्य का कोई कारण न हो तो उसका प्रभाव अवश्य हो जाता है, क्योंकि कारण के विना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। इन भावनाओं में असत्य के कारणों के परिहार का ही प्रतिपादन किया गया है । न होगा वांस, न बजेगी वांसुरी । असत्य का कारण न होगा तो असत्य भी नहीं होगा।
असत्य के प्रधान कारण पाँच हैं । उनके त्याग की यहाँ प्रेरणा की गई है।
असत्य का एक कारण है सोच-विचार किये विना, जल्दबाजी में, जो मन में आए, बोल देना। इस प्रकार बोल देने से अनेकों वार घोर अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं । 'अन्धे की सन्तान अन्धी होती है' द्रौपदी के इस अविचारित वचन ने कितने भीषण अनर्थ उत्पन्न नहीं किए ? स्वयं द्रौपदी को अपमानित होना पड़ा, पाण्डवों की दुर्दशा हुई और महाभारत जैसा दुर्भाग्यपूर्ण संग्राम हुआ, जिसमें करोड़ों को प्राण गँवाने पड़े। अतएव जिस विषय की जानकारी न हो, जिसके विषय में सम्यक प्रकार से विचार न कर लिया गया हो, जिसके परिणाम के सम्बन्ध में पूरी तरह सावधानी न रक्खी गई हो, उस विषय में वाणी का प्रयोग करना उचित नहीं है। तात्पर्य यह है कि जो भी बोला जाए, सुविचारित एवं सुज्ञात ही बोला जाए। भलीभांति विचार करके बोलने वाले को पश्चात्ताप करने का अवसर नहीं पाता, उसे लांछित नहीं होना पड़ता और उसका सत्यव्रत अखंडित रहता है।
प्रथम भावना का नाम 'अनुवीचिसमिति' कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में इसका अर्थ किया गया है-'अनुवोचिभाषणम्-निरवद्यानुभाषणम्' अर्थात् निरवद्य भाषा
१. सर्वार्थसिद्धि प्र.७