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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. २, अ. २
६. प्रतीत्यसत्य - पेक्षा विशेष से कोई वचन बोलना जैसे दूसरी उंगली की अपेक्षा से किसा उंगली को छोटी या बड़ी कहना, द्रव्य की अपेक्षा सब पदार्थों को नित्य कहना या पर्याय की अपेक्षा से स क्षणिक कहना ।
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७. व्यवहारसत्य - जो वचन लोकव्यवहार की दृष्टि से सत्य हो, जैसे- रास्ता तो कहीं जाता नहीं, किन्तु कहा जाता है कि यह रास्ता अमुक नगर को जाता है, गाँव आ गया आदि ।
८. भावसत्य - अनेक गुणों की विद्यमानता होने पर भी किसी प्रधान गुण की विवक्षा करके कहना, जैसे तोते में लाल वर्ण होने पर भी उसे हरा कहना ।
९. योग सत्य -संयोग के कारण किसी वस्तु को किसी शब्द से कहना, जैसे-दण्ड धारण करने के कारण किसी को दण्डी कहना ।
१०. उपमासत्य – समानता के आधार पर किसी शब्द का प्रयोग करना, जैसे - मुख, चन्द्र
आदि ।
भाषा के बारह प्रकार
गामों में भाषा के विविध दृष्टियों से अनेक भेद-प्रभेद प्रतिपादित किए गए हैं। उन्हें विस्तार से समझने के लिए दशवैकालिक तथा प्रज्ञापनासूत्र का भाषापद देखना चाहिए । प्रस्तुत पाठ बारह प्रकार की भाषाएँ बतलाई गई हैं, वे तत्काल में प्रचलित भाषाएँ हैं, जिनके नाम ये हैं(१) प्राकृत ( २ ) संस्कृत (३) मागधी (४) पैशाची ( ५ ) शौरसेनी और ( ६ ) अपभ्रंश । ये छह गद्यमय और छह पद्यमय होने से बारह प्रकार की हैं ।
सोलह प्रकार के वचन
टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने सोलह प्रकार के वचन निम्नलिखित गाथा उद्धृत करके गिनाए हैं
वयणतियं लिंगतियं कालतियं तह परोक्ख पच्चक्खं । उवणीयाइ चउक्कं अज्झत्थं चेव सोलसमं ।।
अर्थात् वचनत्रिक, लिंगत्रिक, कालत्रिक, परोक्ष, प्रत्यक्ष, उपनीत प्रादि चतुष्क और सोलहवाँ अध्यात्मवचन, ये सब मिलकर सोलह वचन हैं ।
वचनत्रिक — एकवचन, द्विवचन बहुवचन । लिंगत्रिक-स्त्रीलिंग, पुलिंग, नपुंसकलिंग ।
कालत्रिक - भूतकाल, वर्त्तमानकाल, भविस्यत्काल । प्रत्यक्षवचन - यथा यह पुरुष है ।
परोक्षवचन - यथा वह मुनिराज ।
जैसे यह रूपवान्
उपनीतादिचतुष्क - (१) उपनीतवचन अर्थात् प्रशंसा का प्रतिपादक वचन, है । (२) अपनी वचन - दोष प्रकट करने वाला वचन, जैसे यह दुराचारी है । (३) उपनीतापनीतप्रशंसा के साथ निन्दावाचक वचन, जैसे यह रूपवान् है किन्तु दुराचारी है । ( ४ ) अपनीतोपनीतवचन-- निन्दा के साथ प्रशंसा प्रकट करने वाला वचन, जैसे यह दुराचारी है किन्तु रूपवान् है ।