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________________ सत्य की महिमा] [१८५ सदोष सत्य का त्याग सच्चं वि य संजमस्स उवरोहकारगं किंचि ण वत्तव्वं, हिंसासावज्जसंपउत्तं भेयविकहकारगं अणत्थवायकलहकारगं अणज्जं अववाय-विवायसंपउत्तं वेलंबं प्रोजधेज्जबहुलं णिल्लज्ज लोयगरहणिज्जं दुद्दिळं दुस्सुयं अमुणियं, अप्पणो थवणा परेसु णिदा; ण तंसि मेहावी, ण तंसि धण्णो, ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो, ण तंसि दाणवई, ण तंसि सूरो, ण तंसि पडिरूवो, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ण बहुस्सुप्रओ, ण वि य तंसि तवस्सी, ण यावि परलोयणिच्छयमई असि, सव्वकालं जाइ-कुलरूव-वाहि-रोगेण वावि जं होई वज्जणिज्जं दुहनो उवयारमइक्कंतं एवं विहं सच्चं वि ण वत्तव्वं । बोलने योग्य वचन अह केरिसगं पुणाई सच्चं तु भासियव्वं ? जं तं दव्वेहि पज्जवेहि य गुणेहि कम्मेहिं बहुविहेहि सिप्पेहिं आगमेहि य णामक्खायणिवायउवसग्ग-तद्धिय-समास-संधि-पद-हेउ-जोगिय-उणाइ-किरियाविहाणधाउ-सर-विभत्ति-वण्णजुतं तिकल्लं दसविहं पि सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ । दुवालसविहा होइ भासा, वयणं वि य होइ सोलसविहं । एवं अरहंतमणुण्णायं संजएण कालम्मि य वत्तव्वं । १२०–श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है। सत्य शुद्ध–निर्दोष, शुचि-पवित्र, शिव-समस्त प्रकार के उपद्रवों से रहित, सुजात-प्रशस्त-विचारों से उत्पन्न होने के कारण सुभाषित–समीचीन रूप से भाषित-कथित होता है । यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है । इसे ज्ञानी जनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है, अर्थात् ज्ञानियों की दृष्टि में सत्य कल्याण का कारण है। यह सुप्रतिष्ठित है-सुस्थिर कीर्ति वाला है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है । सत्य सुरवरों-उत्तम कोटि के देवों, नरवृषभोंश्रेष्ठ मानवों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित जनों द्वारा बहुमत–अतीव मान्य किया गया है। श्रेष्ठ-नैष्ठिक मुनियों का धार्मिक अनुष्ठान है। तप एवं नियम से स्वीकृत किया गया है। सद्गति के पथ का प्रदर्शक है और यह सत्यव्रत लोक में उत्तम है। सत्य विद्याधरों की आकाशगामिनी विद्याओं को सिद्ध करने वाला है। स्वर्ग के मार्ग का तथा मुक्ति के मार्ग का प्रदर्शक है । यथातथ्य अर्थात् मिथ्याभाव से रहित है, ऋजुक-सरल भाव से युक्त है, कुटिलता से रहित है। प्रयोजनवश यथार्थ पदार्थ का ही प्रतिपादक है, सर्व प्रक र्व प्रकार से शुद्ध है असत्य या अर्द्धसत्य की मिलावट से रहित है, अर्थात असत्य का सम्मिश्रण जिसमें नहीं होता वही विशुद्ध सत्य कहलाता है अथवा निर्दोष होता है। इस जीवलोक में समस्त पदार्थों का विसंवादरहित—यथार्थ प्ररूपक है। यह यथार्थ होने के कारण मधुर है और मनुष्यों का बहुत-सी विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं में आश्चर्यजनक कार्य करने वाले देवता के समान है, अर्थात् मनुष्यों पर आ पड़े घोर संकट की स्थिति में वह देवता की तरह सहायक बन कर संकट से उबारने वाला है। किसी महासमुद्र में, जिस में बैठे सैनिक मूढधी हो गए हों, दिशाभ्रम से ग्रस्त हो जाने के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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