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पंचमी भावना : आदान-निक्षेपणसमिति]
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१११-पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित होता है, शोधित होता है, तीर्ण-पूर्ण रूप से पालित होता है, कीर्तित, पाराधित और (जिनेन्द्र भगवान् की) आज्ञा के अनुसार पालित होता है । ऐसा भगवान् ज्ञातमुनि–महावीर ने प्रज्ञापित किया है एवं प्ररूपित किया है । यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है ।
विवेचन-यहाँ प्रथम अहिंसा-संवरद्वार का उपसंहार किया गया है । इस संवरद्वार में जो-जो कथन किया गया है, उसी प्रकार से इसका समग्र रूप में परिपालन किया जाता है। पाठ में आए कतिपय विशिष्ट पदों का स्पष्टीकरण इस भाँति है
फासिय-यथासमय विधिपूर्वक स्वीकार किया गया। पालित-निरन्तर उपयोग के साथ आचरण किया गया । सोहिय-इस पद के संस्कृत रूप दो होते हैं-शोभित और शोधित । व्रत के योग्य दूसरे पात्रों को दिया गया शोभित कहलाता है और अति चार-रहित पालन करने से शोधित कहा जाता है। तीरिय-किनारे तक पहुँचाया हया। कित्तिय-दूसरों को उपदिष्ट किया हुआ। पाराहिय-पूर्वोक्त रूप से सम्पूर्णता को प्राप्त ।'
॥ प्रथम संवरद्वार समाप्त ॥
१-अभयदेवटीका. पृ. ११३.