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________________ चतुर्थ भावना : एषणासमिति [१७९ भारवहणट्ठयाए भुजेज्जा पाणधारणट्ठयाए संजएण समियं एवं प्राहारसमिइजोगेणं भाविमो भवह अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू । ११६–आहार की एषणा से शुद्ध-एषणासम्बन्धी समस्त दोषों से रहित, मधुकरी वृत्ति से अनेक घरों से भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। भिक्षा लेने वाला साधु अज्ञात रहे-अज्ञात सम्बन्ध वाला रहे, अगृद्ध-गृद्ध-आसक्ति से रहित हो, अदुष्ट-द्वेष से रहित हो, अर्थात् भिक्षा न देने वाले, अपर्याप्त भिक्षा देने वाले या नीरस भिक्षा देने वाले दाता पर द्वेष न करे। करुणदयनीय–दयापात्र न बने । अलाभ की स्थिति में विषाद न करे । मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में निरन्तर निरत रहे । प्राप्त संयमयोगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान्, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षु अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जाने-माने में लगे हुए अतिचारों-दोषों का प्रतिक्रमण करे। गृहीत आहार-पानी की आलोचना करे, आहार-पानी उन्हें दिखला दे, फिर गुरुजन के अथवा गुरुजन द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार, सब अतिचारों-दोषों से रहित एवं अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अनेषणाजनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे । तत्पश्चात् शान्त भाव से सुखपूर्वक आसीन होकर, मुहर्त भर धर्मध्यान, गुरु की सेवा आदि शुभ योग, तत्त्वचिन्तन अथवा स्वाध्याय के द्वारा अपने मन का गोपन करके-चित्त स्थिर करके श्रत-चारित्ररूप धर्म में संलग्न मन वाला होकर, चित्तशुन्यता से रहित होकर, संक्लेश से मुक्त रह कर, कलह अथवा दुराग्रह से रहित मन वाला होकर, समाहितमना-समाधियुक्त मन वाला--अपने चित्त को उपशम में स्थापित करने वाला, श्रद्धा, संवेग-मोक्ष की अभिलाषा और कर्मनिर्जरा में चित्त को संलग्न करने वाला, प्रवचन में वत्सलतामय मन वाला होकर साधु अपने आसन से उठे और हृष्ट-तुष्ट होकर यथारात्निक -दीक्षा में छोटे-बड़े के क्रमानुसार अन्य साधुओं को आहार के लिए निमंत्रित करे । गुरुजनों द्वारा लाये हुए आहार को वितरण कर देने के बाद उचित आसन पर बैठे । फिर मस्तक सहित शरीर को तथा हथेली को भलीभाँति प्रमाजित करके-पूज करके आहार में अनासक्त होकर, स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित होकर तथा रसों में अनुराग हत होकर, दाता या भोजन की निन्दा नहीं करता हुआ, सरस वस्तुओं में प्रासक्ति न रखता हा, अकलुषित भावपूर्वक, लोलुपता से रहित होकर, परमार्थ बुद्धि का धारक साधु (भोजन करते समय) सुड्-सुड्' ध्वनि न करता हुआ, 'चप-चप' आवाज न करता हुआ, न बहुत जल्दी-जल्दी और न बहुत देर से, भोजन को भूमि पर न गिराता हुआ, चौड़े प्रकाशयुक्त पात्र में (भोजन करे ।) यतनापूर्वक, आदरपूर्वक एवं संयोजनादि सम्बन्धी दोषों से रहित, अंगार तथा धूम दोष से रहित, गाड़ी की धुरी में तेल देने अथवा घाव पर मल्हम लगाने के समान, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए एवं संयम के भार को वहन करने के लिए प्राणों को धारण करने के उद्देश्य से साधु को सम्यक् प्रकार से—यतना के साथ भोजन करना चाहिए। ___ इस प्रकार पाहारसमिति (एषणासमिति) में समीचीन रूप से प्रवृत्ति के योग से अन्तरात्मा भावित करने वाला साधु, निर्मल, संक्लेशरहित तथा अखण्डित चारित्र की भावना वाला अहिंसक संयमी होता है- मोक्षसाधक होता है।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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