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________________ १७६] [प्रश्नव्याकरणसूत्र :श्रु. २, अ. १ उद्देश्य से साधु को आहार-पानी आदि संयम-साधनों की आवश्यकता होती है। किन्तु उन्हें किस प्रकार निर्दोष रूप में प्राप्त करना चाहिए, इस प्रश्न का उत्तर आगमों में यत्र-तत्र अत्यन्त विस्तार से दिया गया है। आहारादि-ग्रहण के साथ अनेकानेक विधिनिषेध जुड़े हए हैं। उन सब का अभिप्राय यही है कि साधु ने जिन महाव्रतों को अंगीकार किया है, उनका भलीभाँति रक्षण एवं पालन करते हुए ही उसे आहारादि प्राप्त करना चाहिए। आहारादि के लिए उसे संयमविरुद्ध कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए। साथ ही पूर्ण समभाव की स्थिति में रहना चाहिए। आहार का लाभ होने पर हर्ष और लाभ न होने पर विषाद को निकट भी न फटकने देना चाहिए। मन में लेशमात्र दीनता-हीनता न आने देना चाहिए और दाता या देय वस्तु के अनिष्ट होने पर क्रोध या द्वेष की भावना नहीं लानी चाहिए। आहार के विषय में गृद्धि नहीं उत्पन्न होने देना भी आवश्यक है। इस प्रकार शरीर, आहार आदि के प्रति ममत्वविहीन होकर सब दोषों से बच कर भिक्षा की गवेषणा करने वाला मुनि ही अहिंसा भगवती की यथावत् आराधना करने में समर्थ होता है। प्रवचन का उद्देश्य और फल ११२-इमं च णं सव्वजगजीव-रक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं प्रागमेसिभई सुद्धं णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणविउसमणं । ११२-(अहिंसा की आराधना के लिए शुद्ध-निर्दोष भिक्षा आदि के ग्रहण का प्रतिपादक) यह प्रवचन श्रमण भगवान् महावीर ने जगत् के समस्त जीवों की रक्षा-दया के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक-आगामी जन्मों में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है । यह भगवत्प्रवचन शुद्ध-निर्दोष है और दोषों से मुक्त रखने वाला है, न्याययुक्त है तर्कसंगत है और किसी के प्रति अन्यायकारी नहीं है, अकुटिल है अर्थात् मुक्तिप्राप्ति का सरल-सीधा मार्ग है, यह अनुत्तर–सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। विवेचन-इस पाठ में विनेय जनों की श्रद्धा को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रवचन के उद्देश्य और महत्त्व का निरूपण किया गया है। तीर्थकर भगवान् जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति परिपूर्ण समभाव के धारक होते हैं। पूर्ण वीतराग होने के कारण न किसी पर राग और न किसी पर द्वेष का भाव उनमें होता है । इस कारण भगवान् तीर्थंकर देव का प्रवचन सार्व-सर्वकल्याणकारी ही होता है। चार घातिकर्मों से मुक्त और कृतकृत्य हो चुकने पर भी तीर्थंकर उपदेश क्यों-किसलिए करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तीर्थंकर नामकर्म के उदय से भगवान् प्राणियों की रक्षा रूप करुणा से प्रेरित होकर उपदेश में प्रवृत्त होते हैं। भव्य प्राणियों का प्रबल पुण्य भी उसमें बाह्य निमित्त बनता है। साधारण पुरुष की उक्ति वचन कहलाती है और महान् पुरुष का वचन प्रवचन कहलाता है। प्रवचन शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणशास्त्र के अनुसार तीन प्रकार से की जा सकती है
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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