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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ.१
(८) क्रीत - साधु के निमित्त खरीद कर लाया आहार लेना । (९) प्रामित्य - साधु के लिए उधार लिया हुआ आहार लेना । (१०) परिवर्तित - साधु के लिए आहार में अदल-बदल करना, दूसरे से अदलाबदली
करना ।
(११) अभिहृत - साधु के सामने - उपाश्रय आदि में आहार लाना ।
(१२) उद्भिन्न- साधु को देने के लिए किसी पात्र को खोलना - लाख आदि के लेप को हटाना ।
(१३) मालापहृत - निसरणी आदि लगा कर, उस पर चढ़ कर, ऊपर से नीचे उतार कर दिया जाने वाला आहार ।
(१४) आच्छेद्य - दुर्बलों से या प्राश्रित जनों से छीन कर साधु को आहार देना ।
(१५) निसृष्ट – जिस वस्तु के अनेक स्वामी हों, उसे उन सब की अनुमति के विना देना । (१६) अध्यवपूर -- साधुओं का आगमन जान कर अपने लिए बनने वाले भोजन में अधिक सामग्री मिला देना - अधिक रसोई तैयार करना ।
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उद्गम के इन सोलह दोषों का निमित्त दाता होता है, अर्थात् दाता के कारण ये दोष होते हैं । (२) सोलह उत्पादनादोष
(१) धात्री - धायमाता जैसे कार्य - बच्चे को खेलना आदि करके आहार प्राप्त करना ।
(२) दूती - गुप्त अथवा प्रकट संदेश पहुँचा कर प्रहार प्राप्त करना ।
(३) निमित्त - शुभ-अशुभ निमित्त बतलाकर प्रहार प्राप्त करना ।
(४) श्राजीव- प्रकट या अप्रकट रूप से अपनी जाति या कुल का परिचय देकर भिक्षा प्राप्त करना ।
(५) वनीपक जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि में जहाँ जिसका आदर हो, वहाँ वैसा ही अपने को बतलाकर अथवा दीनता दिखलाकर आहार प्राप्त करना ।
(६) चिकित्सा - वैद्यवृत्ति से प्रहार प्राप्त करना ।
(७) क्रोध - क्रोध करके या गृहस्थ को शाप आदि का भय दिखाकर आहार प्राप्त करना । (८) मान अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी वगैरह बतला कर आहार प्राप्त
करना ।
( ९ ) माया -छल करके आहार प्राप्त करना ।
(१०) लोभ - आहार लोभ करना, आहार के लिए जाते समय लालचवश ऐसा निश्चय करके जाना कि आज तो ग्रमुक वस्तु ही लाएँगे और उस वस्तु के न मिलने पर उसके लिए भटकना ।
(११) पूर्व - पश्चात् संस्तव - प्रहार देने से पहले या पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, उसका गुणगान करना ।
(१२) विद्या - देवी जिसकी अधिष्ठात्री हो और जप या हवन से जिसकी सिद्धि हो, उसे विद्या कहते हैं । ऐसी विद्या के प्रयोग से आहारलाभ करना ।