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पादित किसी प्रश्न के उत्तर का आंशिक भाग हो। इसी नाम से मिलती-जुलती प्रतियाँ ग्रन्थभंडारों में उपलब्ध होती हैं, जैसे कि जैसलमेर के खरतरगच्छ के प्राचार्यशाखा के भंडार में 'जयपाहड-प्रश्नव्याकरण' नामक सं. १४३६ की एक ताडपत्रीय प्रति थी। प्रति अशुद्ध लिखी गई थी और कहीं कहीं अक्षर भी मिट गए थे। मुनिश्री जिनविजय जी ने इसे सम्पादित और यथायोग्य पाठ संशोधित कर सं. २०१५ में सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ग्रंथांक ४३ के रूप में प्रकाशित करवाया। इसकी प्रस्तावना में मुनिश्री ने जो संकेत किया है, उसका कुछ अंश है
'प्रस्तुत ग्रन्थ अज्ञात तत्त्व और भावों का ज्ञान प्राप्त करने-कराने का विशेष रहस्यमय शास्त्र है। यह शास्त्र जिस मनीषी या विद्वान को अच्छी तरह से अवगत हो, वह इसके आधार से किसी भी प्रश्नकर्ता के लाभअलाभ, शुभ-अशुभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि बातों के सम्बन्ध में बहत निश्चित एवं तथ्यपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है तथा प्रश्नकर्ता को बता सकता है।'
इसके बाद उपसंहार के रूप में मुनिश्री ने लिखा है
'इस ग्रन्थ का नाम टीकाकार ने पहले 'जयपाहुड' और फिर 'प्रश्नव्याकरण' दिया है । मूल ग्रन्थकार ने 'जयपायड' दिया है। अन्त में भी 'प्रश्नव्याकरण समाप्तम्' लिखा है। प्रारम्भ में टीकाकार ने इस ग्रन्थ का जो नाम 'प्रश्नव्याकरण' लिखा है, उसका उल्लेख इस प्रकार है-'महावीराख्यं सि (शि)रसा प्रणम्य प्रश्नव्याकरणं शास्त्रं व्याख्यामीति ।' मूल प्राकृत गाथाएँ ३७८ हैं । उसके साथ संस्कृतटीका है । यह प्रति २२७ पन्नों में वि० १३३६ की चैत बदी १ की लिखी हुई है। अन्त में 'चूडामणिसार-ज्ञानदीपक ग्रन्थ, ७३ गाथाओं की टीका सहित, है । इसके अन्त में लिखा हुआ है 'इति जिनेन्द्रकथितं प्रश्नचूडामणिसारशास्त्र समाप्तम् ।'
जिनरत्नकोश के पृ. १३३ में भी इस नाम वाली एक प्रति का उल्लेख है। इसमें २२८ गाथाएँ बतलाई हैं तथा शान्तिनाथ भण्डार, खम्भात में इसकी कई प्रतियाँ हैं, ऐसा कोश से ज्ञात होता है । नेपाल महाराजा की लाईब्ररी में भी प्रश्नव्याकरण या ऐसे ही नाम वाले ग्रन्थ की सूचना तो मिलती है, लेकिन क्या वह अनुपलब्ध प्रश्नव्याकरण सूत्र की पूरक है, इसकी जानकारी अप्राप्य है।
उपर्युक्त उद्धरणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि मूल प्राचीन प्रश्नव्याकरण सूत्र भिन्न-भिन्न विभागों में बंट गया और पृथक्-पृथक् नाम वाले अनेक ग्रन्थ बन गये । सम्भव है उनमें मूल प्रश्नव्याकरण के विषयों की चर्चा की गई हो । यदि इन सबका पूर्वापर सन्दर्भो के साथ समायोजन किया जाए तो बहुत कुछ नया जानने को मिल सकता है। इसके लिए श्रीमन्तों का प्रचुर धन नहीं किन्तु सरस्वतीसाधकों का समय और श्रम अपेक्षित है।
प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विलुप्ति का समय
प्राचीन प्रश्नव्याकरण कब लुप्त हुआ? इसके लिए निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। आगमों को लिपिबद्ध करने वाले आचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने इस विषय में कुछ सूचना नहीं दी है। इससे ज्ञात होता है कि समवायांग आदि में जिस द्रश्नव्याकरण का उल्लेख है वह उनके समक्ष विद्यमान था । उसी को उन्होंने लिपिबद्ध कराया हो, अथवा प्राचीन श्रुतपरम्परा से जैसा चला आ रहा था, वैसा ही समवायांग आदि में उसका विषय लिख दिया गया हो, कुछ स्पष्ट नहीं होता है। दिगम्बर परम्परा अंग साहित्य का विच्छेद मानती है, अतः वहाँ तो आचारांग आदि अंग साहित्य का कोई अंग नहीं है। अत: प्रश्नव्याकरण भी नहीं है जिस पर कुछ
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