________________
१७२1
[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. १
११०-अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय- इन स्थावर और (द्वीन्द्रिय आदि) त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध—निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। जो आहार साधु के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो अर्थात् गृहस्थ द्वारा निमन्त्रण देकर या पुनः बुलाकर न दिया गया हो, जो अनुद्दिष्ट हो–साधु के निमित्त तैयार न किया गया हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो, शंकित आदि दश दोषों से सर्वथा रहित हो, जो उद्गम के सोलह, उत्पादना के सोलह और एषणा के दस दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव-जन्तु स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वतः या परत:-किसी के द्वारा च्युत-मृत हो गए हों या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों अथवा दाता ने स्वयं दूर कर दिए हों, इस प्रकार जो भिक्षा अचित्त हो, जो शुद्ध अर्थात् भिक्षा सम्बन्धी अन्य दोषों से रहित हो, ऐसी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए।
__ भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर गए हुए साधु को आसन पर बैठ कर, धर्मोपदेश देकर या कथाकहानी सुना कर प्राप्त किया हुआ पाहार नहीं ग्रहण करना चाहिए। वह आहार चिकित्सा, मंत्र, मूल-जड़ीबूटी, औषध आदि के हेतु नहीं होना चाहिए। स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभसूचक लक्षण, उत्पात-भूकम्प, अतिवृष्टि, दुभिक्ष आदि स्वप्न, ज्योतिष-ग्रहदशा, मुहूर्त आदि का प्रतिपादक शास्त्र, विस्मयजनक चामत्कारिक प्रयोग या जादू के प्रयोग के कारण दिया जाता आहार नहीं होना चाहिए, अर्थात् साधु को लक्षण, उत्पात, स्वप्नफल या कुतूहलजनक प्रयोग आदि बतला कर भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए । दम्भ अर्थात् माया का प्रयोग करके भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्वामी के घर की या पुत्र आदि की रखवाली करने के बदले प्राप्त होने वाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिएभिक्षाप्राप्ति के लिए रखवाली नहीं करनी चाहिए। गृहस्थ के पुत्रादि को शिक्षा देने या पढ़ाने के निमित्त से भी भिक्षा गाह्य नहीं है। पूर्वोक्त दम्भ, रखवाली और शिक्षा-इन तीनों निमित्तों से भिक्षा नहीं स्वीकार करनी चाहिए। गृहस्थ का वन्दन-स्तवन–प्रशंसा करके, सन्मान–सत्कार करके अथवा पूजा-सेवा करके और वन्दन, मानन एवं पूजन-इन तीनों को करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करना चाहिए।
विवेचन–प्रस्तुत पाठ में अहिंसा के आराधक साधु को किस प्रकार की निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिये, यह प्रतिपादित किया गया है। सूत्र में जिन दोषों का उल्लेख हुआ है, उनसे बचते हुए ही भिक्षा ग्रहण करने वाला पूर्ण अहिंसा की आराधना कर सकता है । कतिपय विशिष्ट पदों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नवकोटिपरिशुद्ध-आहारशुद्धि की नौ कोटियाँ ये हैं-(१) आहारादि के लिए साधु हिंसा न करे (२) दूसरे के द्वारा हिंसा न कराए (३) ऐसी हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे (४) स्वयं न पकाए (५) दूसरे से न पकवाए (६) पकाने वाले का अनुमोदन न करे (७) स्वयं न खरीदे (८) दूसरे से न खरीदवाए और (९) खरीदने वाले का अनुमोदन न करे । ये नौ कोटियाँ मन, वचन और काय से समझना चाहिए। शंकित आदि दस दोष
(१) शंकित-दोष की आशंका होने पर भी भिक्षा ले लेना।