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संवारद्वार
भूमिका
१०३-जंबू ! एत्तो संवरदाराइं, पंच वोच्छामि आणुपुवीए।
जह भणियाणि भगवया, सव्वदुक्खविमोक्खणटाए ॥१॥ १०३–श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं हे जम्बू ! अब मैं पाँच संवरद्वारों को अनुक्रम से कहूंगा, जिस प्रकार भगवान् ने सर्वदुःखों से मुक्ति पाने के लिए कहे हैं ॥१॥
१०४–पढम होइ अहिंसा, बिइयं सच्चवयणं ति पण्णतं ।
दत्तमणुण्णाय संवरो य, बंभचेर-मपरिग्गहत्तं च ॥२॥ १०४–(इन पाँच संवरद्वारों में) प्रथम अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन है, तीसरा स्वामी की प्राज्ञा से दत्त (अदत्तादानविरमण) है, चौथा ब्रह्मचर्य और पंचम अपरिग्रहत्व है ।। २ ।। ..१०५-तत्थ पढमं अहिंसा, तस-थावर-सव्वभूय-खेमकरी।।
तीसे सभावणामो, किंचि वोच्छं गुणुद्देसं ॥३॥ १०५-इन संवरद्वारों में प्रथम जो अहिंसा है, वह त्रस और स्थावर-समस्त जीवों का क्षेम-कुशलं करने वाली है । मैं पाँच भावनाओं सहित अहिंसा के गुणों का कुछ कथन करूगा ।। ३ ।।
विवेचन–पाँच पास्रवद्वारों के वर्णन के पश्चात् शास्त्रकार ने यहाँ पाँच संवरद्वारों के वर्णन की प्रतिज्ञा प्रकट की है।
पहले बतलाया जा चुका है कि ज्ञानावरणीय आदि पाठ कर्मों के बन्ध का कारण आस्रव कहलाता है। आस्रव के विवक्षाभेद से अनेक आधारों से, अनेक भेद किए गए हैं। किन्तु यहाँ प्रधानता की विवक्षा करके आस्रव के पाँच भेदों का ही निरूपण किया गया और अन्यान्य भेदों का इन्हीं में समावेश कर दिया गया है। अतएव प्रास्रव के विरोधी संवर के भी पाँच ही भेद कहे गए हैं । तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा प्रादि संवरों को अहिंसादि संवरों एवं उनकी भावनाओं में अन्तर्गत कर लिया गया है। अतएव अन्यत्र संवर के जो भेद-प्रभेद हैं उनके साथ यहाँ उल्लिखित पाँच संख्या का कोई विरोध नहीं है।
__संवर, प्रास्रव का विरोधी तत्त्व है। उसका तात्पर्य यह है कि जिन अशुभ भावों से कर्मों का बंध होता है, उनसे विरोधी भाव अर्थात् प्रास्रव का निरोध करने वाला भाव संवर है। संवर शब्द की व्युत्पत्ति से भी यही अर्थ फलित होता है-'संवियन्ते प्रतिरुध्यन्ते आगन्तुककर्माणि येन सः