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प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. १, अ. ५
७१. सजीव - निर्जीव- सजीव को निर्जीव और निर्जीव को सजीव जैसा दिखाना । ७२. शकुनिरुत - पक्षियों की बोली पहचानना ।
चौसठ महिलागुण - ( १ ) नृत्यकला ( २ ) औचित्यकला ( ३ ) चित्रकला ( ४ ) वादित्र ( ५ ) मंत्र (६) तंत्र (७) ज्ञान (८) विज्ञान ( ९ ) दण्ड (१०) जलस्तम्भन ( ११ ) गीतगान ( १२ ) तालमान (१३) मेघवृष्टि (१४) फलाकृष्टि (१५) आरामरोपण (१६) आकारगोपन (१७) धर्मविचार (१८) शकुनविचार (१९) क्रियाकल्पन ( २० ) संस्कृतभाषण (२१) प्रसादनीति (२२) धर्मनीति ( २३ ) वाणीवृद्धि (२४) सुवर्णसिद्धि (२५) सुरभितैल (२६) लीलासंचारण ( २७) गज-तुरंगपरीक्षण ( २८ ) स्त्री-पुरुषलक्षण (२९) स्वर्ण - रत्नभेद (३०) अष्टादशलिपि ज्ञान ( ३१ ) तत्काल बुद्धि (३२) वस्तुसिद्धि (३३) वैद्यकक्रिया (३४) कामक्रिया (३५) घटभ्रम ( ३६ ) सार परिश्रम ( ३७ ) अंजनयोग (३८) चूर्णयोग ( ३९ ) हस्तलाघव (४०) वचनपाटव ( ४१ ) भोज्यविधि (४२) वाणिज्यविधि ( ४३ ) मुखमण्डन (४४) शालिखण्डन (४५) कथाकथन ( ४६ ) पुष्पग्रथन (४७) वक्रोक्तिजल्पन (४८) काव्यशक्ति (४९) स्फारवेश (५०) सकलभाषाविशेष (५१) अभिधानज्ञान (५२) आभरणपरिधान (५३) नृत्योपचार (५४) गृहाचार (५५) शाठयकरण ( ५६ ) पर निराकरण (५७) धान्यरन्धन (५८) केशबन्धन (५९) वीणादिनाद (६०) वितण्डावाद (६१) अंकविचार (६२) लोकव्यवहार (६३) अन्त्यक्षरी र (६४) प्रश्नप्रहेलिका ।
ये पुरुषों की बहत्तर और महिलाओं की चौसठ कलाएँ हैं । बहत्तर कलाओं का नामोल्लेख श्रागमों में मिलता है, महिलागुणों का विशेष नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । इनसे प्राचीनकालीन शिक्षापद्धति एवं जीवनपद्धति का अच्छा चित्र हमारे समक्ष उभर कर आता है । आगमों से यह भी विदित होता है कि ये कलाएँ सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सिखलाई जाती थीं ।
परिग्रह के लिए किये जाने वाले अन्यान्य श्रावश्यकता नहीं । मूल पाठ और अर्थ से ही उन्हें के लिए मनुष्य जीवन विविध कार्य करता है, और अधिकाधिक परिग्रह के लिए तरसता - तरसता ही मरण के शिकंजे में फँसता है ।
कार्यों के विषय में अधिक उल्लेख करने की समझा जा सकता है सारांश यह है कि परिग्रह उसके लिए पचता है, मगर कभी तृप्त नहीं होता
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परिग्रह पाप का कटुफल
९७ - परलोगम्मि य णट्ठा तमं पविट्ठा महयामोहमोहियमई तिमिसंधयारे तस्थावरसुहुमबायरेसु पज्जत्तम पज्जत्तग-साहारण - पत्तेयसरीरेसु य अण्डय - पोयय - जराज्य - रसय-संसे इम-सम्मुच्छिम उभय-उववाइए य णरय- तिरिय देव मणुस्सेसु जरामरणरोगसोगबहुलेसु पलिप्रोवमसागरोवमाई प्रणाइयं प्रणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं श्रणुपरियट्ठेति जीवा लोहवससण्णिविट्ठा। एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइग्रो परलोइग्रो अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भनो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो प्रसाप्रो वाससहस्सेहि मुच्चइ ण श्रवेयइत्ता प्रत्थि हु मोक्खत्ति ।
एवमाहंसु णायकुलणंदणी महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फल
विवागं ।