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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ: १, अं. ४
लम्बे, कुचित - सिकुड़े हुए और उत्तम होते हैं । उनके उत्तरोष्ठ— ऊपर वाले होठ भी सुन्दर होते हैं । उनके दांत दही, पत्ते पर पड़ी बूंद, कुन्द के फूल, चन्द्रमा एवं चमेली की कली के समान श्वेत वर्ण, अन्तररहित -- एक दूसरे से सटे हुए और उज्ज्वल होते हैं। वे रक्तोत्पल के समान लाल तथा कमलपत्र के 'सदृश कोमल तालु और जिह्वा वाली होती हैं । उनकी नासिका कनेर की कली के समान, वक्रता से रहित, आगे से ऊपर उठी, सीधी और ऊँची होती है । उनके नेत्र शरद् ऋतु के सूर्यविकासी नवीन कमल, चन्द्रविकासी कुमुद तथा कुवलय - नील कमल के पत्तों के समूह के समान, शुभ लक्षणों से प्रशस्त, कुटिलता ( तिछेपन) से रहित और कमनीय होते हैं । उनकी भौंहें किंचित्
ये हुए धनुष के समान मनोहर, कृष्णवर्ण अभ्रराजि - मेघमाला के समान सुन्दर, पतली, काली और चिकनी होती हैं । उनके कान सटे हुए और समुचित प्रमाण से युक्त होते हैं । उनके कानों की श्रवणशक्ति अच्छी होती है । उनकी कपोलरेखा पुष्ट, साफ और चिकनी होती है । उनका ललाट चार
विस्तीर्ण और सम होता है। उनका मुख चन्द्रिकायुक्त निर्मल एवं परिपूर्ण चन्द्रमा के समान गोलाकार एवं सौम्य होता है। उनका मस्तक छत्र के सदृश उन्नत - उभरा हुआ होता है । उनके मस्तक के केश काले, चिकने और लम्बे-लम्बे होते हैं । वे निम्निलिखित उत्तम बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न होती हैं
(१) छत्र ( २ ) ध्वजा ( ३ ) यज्ञस्तम्भ ( ४ ) स्तूप ( ५ ) दामिनी - माला ( ६ ) कमण्डलु (७) कलश ( ८ ) वापी ( ९ ) स्वस्तिक ( १० ) पताका ( ११ ) यव (१२) मत्स्य (१३) कच्छप (१४) प्रधान रथ (१५) मकरध्वज (कामदेव ) (१६) वज्र (१७) थाल (१८) अंकुश (१९) अष्टापद - जुआ खेलने का पट्ट या वस्त्र (२०) स्थापनिका ठवणी या ऊँचे पैंदे वाला प्याला (२१) देव (२२) लक्ष्मी का अभिषेक ( २३ ) तोरण (२४) पृथ्वी (२५) समुद्र (२६) श्रेष्ठ भवन (२७) श्रेष्ठ पर्वत (२८) उत्तम दर्पण (२९) क्रीड़ा करता हुआ हाथी (३०) वृषभ (३१) सिंह और (३२) चमर । उनकी चाल हंस जैसी और वाणी कोकिला के स्वर की तरह मधुर होती है । वे कमनीय कान्ति से युक्त और सभी को प्रिय लगती हैं। उनके शरीर पर न झुर्रियाँ पड़ती हैं, न उनके बाल सफेद होते हैं, न उनमें अंगहीनता होती है, न कुरूपता होती है । वे व्याधि, दुर्भाग्य - सुहाग- हीनता. एवं शोक-चिन्ता से (श्राजीवन) मुक्त रहती हैं । ऊँचाई में पुरुषों से कुछ कम ऊँची होती हैं । शृंगार के आगार के समान और सुन्दर वेश-भूषा से सुशोभित होती हैं । उनके स्तन, जघन, मुख - चेहरा, हाथ पाँव और नेत्र - सभी कुछ अत्यन्त सुन्दर होते हैं । लावण्य - सौन्दर्य, रूप और यौवन के गुणों
सम्पन्न होती हैं । वे नन्दन वन में विहार करने वाली अप्सरात्रों सरीखी उत्तरकुरु क्षेत्र की मानवी अप्सराएँ होती हैं । वे आश्चर्यपूर्वक दर्शनीय होती हैं, अर्थात् उन्हें देखकर उनके अद्भुत सौन्दर्य पर आश्चर्य होता है कि मानवी में भी इतना अपार सौन्दर्य संभव है ! वे तीन पल्योपम की उत्कृष्ट - अधिक से अधिक मनुष्यायु को भोग कर भी - तीन पल्योपम जितने दीर्घ काल तक इष्ट एवं उत्कृष्ट मानवीय भोगोपभोगों का उपभोग करके भी कामभोगों से तृप्त नहीं हो पाती और अतृप्त रह कर ही कालधर्म - मृत्यु को प्राप्त होती हैं ।
विवेचन-प्रस्तुत पाठ में भोगभूमि की महिलाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इ वर्णन में उनके शरीर का प्रा-नख-शिख वर्णन समाविष्ट हो गया है। उनके पैरों, अंगुलियों, नाखूनों जंघाओं, घुटनों आदि से लेकर मस्तक के केशों तक का पृथक्-पृथक् वर्णन है, जो विविध उपमा से अलंकृत है । इस शारीरिक सौन्दर्य के निरूपण के साथ ही उनकी हंस-सदृश गति और कोकिला