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उनका कहना है कि समय की दृष्टि से जैन आगमों का रचना-समय जो भी माना जाए, किन्तु उनमें जिन तथ्यों का संग्रह है, वे तथ्य ऐसे नहीं हैं, जो उसी काल के हों।'
प्रस्तुत में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया, उसे सूत्रबद्ध किया है गणधरों ने। इसीलिये अर्थोपदेश या अर्थ रूप शास्त्र के कर्ता भगवान महावीर माने जाते हैं और शब्द रूप शास्त्र के कर्ता गणधर हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में सुत्तागम, अत्थागम, अत्तागम, अणंतरागम आदि जो लोकोत्तर मागम के भेद किये हैं, उनसे भी इसी का समर्थन होता है। जैन साहित्य का नामकरण
आज से पच्चीस सौ वर्ष अथवा इससे भी पहले के जिज्ञासु श्रद्धाशील अपने-अपने समय के साहित्य को, जिसे आदर-सम्मानपूर्वक धर्मशास्त्र के रूप में मानते थे, विनयपूर्वक अपने-अपने गुरुषों से कंठोपकंठ प्राप्त करते थे। वे इस प्रकार से प्राप्त होने वाले शास्त्रों को कंठाग्र करते और उन कंठाग्र पाठों को बार-बार स्मरण करके याद रखते । धर्मवाणी के उच्चारण शुद्ध सुरक्षित रहें, इसका वे पूरा ध्यान रखते। कहीं भी काना, मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग आदि निरर्थक रूप में प्रविष्ट न हो जाए, अथवा निकल न जाए इसकी पूरी सावधानी रखते थे। इसका समर्थन वर्तमान में प्रचलित अवेस्ता गाथाओं एवं वेदपाठों की उच्चारणप्रक्रिया से होता है।
जैनपरम्परा में भी एतद्विषयक विशेष विधान हैं। सूत्र का किस प्रकार उच्चारण करना चाहिए, उच्चारण करते समय किन-किन दोषों से दूर रहना चाहिए, इत्यादि का अनुयोगद्वार सूत्र मादि में स्पष्ट विधान किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में भी उच्चारणविषयक कितनी सावधानी रखी जाती थी। इस प्रकार विशुद्ध रीति से संचित श्रुत-सम्पत्ति को गुरु अपने शिष्यों को तथा शिष्य पुनः अपनी परम्परा के शिष्यों को सौंपते थे। इस प्रकार श्रुत की यह परम्परा भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक निरंतर चलती रही। अविसंवादी रूप से इसको सम्पन्न करने के लिये एक विशिष्ट और आदरणीय वर्ग था, जो उपाध्याय के रूप में पहचाना जाता है। इसकी पुष्टि णमोकार मंत्र से होती है। जैन परम्परा में अरिहंत आदि पांच परमेष्ठी माने गये हैं, उनमें इस वर्ग का चतुर्थ स्थान है। इससे ज्ञात हो जाता है कि जैन संघ में इस वर्ग का कितना सम्मान था।
___धर्मशास्त्र प्रारम्भ में लिखे नहीं गये थे, अपितु कंठाग्र थे और वे स्मृति द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे, इसको प्रमाणित करने के लिये वर्तमान में प्रचलित श्रुति, स्मृति और श्रुत शब्द पर्याप्त हैं। ब्राह्मणपरम्परा में मुख्य प्राचीन शास्त्रों का नाम श्रुति और तदनुवर्ती बाद के शास्त्रों का नाम स्मृति है। ये दोनों शब्द रूढ नहीं, किन्तु यौगिक
और अन्वयर्थक हैं। जैन परम्परा में शास्त्रों का प्राचीन नाम श्रुत है। यह शब्द भी यौगिक है। अतः इन नामों वाले शास्त्र सुन-सुनकर सुरक्षित रखे गये ऐसा स्पष्टतया फलित होता है। जैनाचार्यों ने श्रुतज्ञान का जो स्वरूप बतलाया है और उसके जो विभाग किये हैं, उसके मूल में 'सुत्त'-श्रुत शब्द रहा हुआ है। वैदिक परम्परा में वेदों के सिवाय अन्य किसी भी ग्रन्थ के लिये श्रुति शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जबकि जैन परम्परा में समस्त प्राचीन अथवा अर्वाचीन शास्त्रों के लिये श्रुत शब्द का प्रयोग प्रचलित है। इस प्रकार श्रुत शब्द मूलतः यौगिक होते हुए भी अब रूढ़ हो गया है।
१ Doctrine of the Jainas P. 15 २ अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियट्ठाए तो सुत्तं पवत्तई ।।
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