________________
चक्रवर्ती का राज्यविस्तार
[११९
"
"
"
.
प्रकार का आभूषण, नूपुर-पाजेब, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर-देवविशेष या वाद्यविशेष, मयूर, उत्तम राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाक-यूगल, चंवर, ढाल, पव्वीसक-एक प्रकार का बाजा, विपंची-सात तारों वाली वीणा, श्रेष्ठ पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथ्वी, तलवार, अंकुश, निर्मल कलश, भृगार-झारी और वर्धमानक-सिकोरा अथवा प्याला, (चक्रवर्ती इन सब) श्रेष्ठ पुरुषों के मांगलिक एवं विभिन्न लक्षणों को धारण करने वाले होते हैं।
बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजा मार्ग में उनके (चक्रवर्ती के) पीछे-पीछे चलते हैं । वे चौसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों (महारानियों) के नेत्रों के कान्त-प्रिय होते हैं। उनके शरीर की कान्ति रक्तवर्ण होती है। वे कमल के गर्भ-मध्यभाग, चम्पा के फलों, कोरंट की माला और तप्त सुवर्ण की कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान गौर वर्ण वाले होते हैं । उनके सभी अंगोपांग अत्यन्त सुन्दर और सुडौल होते हैं । बड़े-बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों के हिरनी तथा खास जाति की हिरनी के चर्म के समान कोमल एवं बहुमूल्य वल्कल से या हिरनी के चर्म से बने वस्त्रों से तथा चीनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्र-करधनी से उनका शरीर सुशोभित होता है । उनके मस्तिष्क उत्तम सुगन्ध से सुन्दर चूर्ण (पाउडर) के गंध से और उत्तम कुसुमों से युक्त होते हैं। कुशल कलाचार्यों-शिल्पियों द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई सुखकर–आराम देने वाली माला, कड़े, अंगद-बाजूबंद, तुटिक—अनन्त तथा अन्य उत्तम आभूषणों को वे शरीर पर धारण किए रहते हैं । एकावली. हार से उनका कण्ठ सुशोभित रहता है । वे लम्बी लटकती धोती एवं उत्तरीय वस्त्र-दुपट्टा पहनते हैं । उनकी उंगलियाँ अंगूठियों से पीली रहती हैं । अपने उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष-पोशाक से अत्यन्त शोभायमान होते हैं। अपनी तेजस्विता से वे सर्य के समान दमकते हैं। उनका प्राघोष (आवाज) शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर एवं स्निग्ध होता है। उनके यहाँ चौदह रत्न-जिनमें चक्ररत्न प्रधान है—उत्पन्न हो जाते हैं और वे नौ निधियों के अधिपति होते हैं । उनका कोश---कोशागार-खजाना-खूब भरपूर (समृद्ध) होता है । उनके राज्य की सीमा चातुरन्त होती है, अर्थात् तीन दिशाओं में समुद्र पर्यन्त और एक दिशा में हिमवान् पर्वत पर्यन्त होती है । चतुरंगिणी सेना-गजसेना, अश्वसेना, रथसेना एवं पदाति-सेना-उनके मार्ग का अनुगमन करती है उनके पीछे-पीछे चलती है। वे अश्वों के अधिपति, हाथियों के अधिपति, रथों के अधिपति एवं नरों-मनुष्यों के अधिपति होते हैं । वे बड़े ऊंचे कुलों वाले तथा विश्रुत-दूर-दूर तक फैले यश वाले होते हैं । उनका मुख शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान होता है । शूरवीर होते हैं। उनका प्रभाव तीनों लोकों में फैला होता है एवं सर्वत्र उनकी जय-जयकार होती है । वे सम्पूर्ण छह खण्ड वाले भरत क्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े-बड़े राजाओं में सिंह के समान, पूर्वकाल में किए तप के प्रभाव से सम्पन्न, संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले, अनेक वर्षशत अर्थात् सैकड़ों वर्षों के आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र- चक्रवर्ती होते हैं । पर्वतों, वनों और काननों सहित उत्तर दिशा में हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त समग्र भरत क्षेत्र का भोग करके अर्थात् समस्त भारतवर्ष के स्वामित्व-राज्यशासन का उपभोग करके, (विभिन्न) जनपदों में प्रधान—उत्तम भार्याओं के साथ भोग-विलास करते हुए तथा अनुपम-जिनकी तुलना नहीं की जा सकती ऐसे शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध सम्बन्धी काम-भोगों का अनुभव-भोगोपभोग करते हैं। फिर भी वे काम-भोगों से तृप्त हुए विना ही मरणधर्म को मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
विवेचन-उल्लिखित पाठ में शास्त्रकार ने यह प्रदर्शित किया है कि कामभोगों से जीव की