________________
१०८]
[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. ३ (हाड़ों की बनावट) खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता-शरीर का कोई भाग उचित से अधिक छोटा अथवा बड़ा होता है। उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है। वे कुरूप होते हैं। उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ तीव्र होता है-तीव्रकषायी होते हैं और मोह-आसक्ति की तीव्रता होती है—अत्यन्त आसक्ति वाले होते हैं अथवा घोर अज्ञानी होते हैं। उनमें धर्मसंज्ञा धार्मिक समझ-बूझ नहीं होती। वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं। उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है । वे सदा परकर्मकारी-दूसरों के अधीन रह कर काम करते हैं-नौकर-चाकर रह कर जिन्दगी बिताते हैं । कृपण-रंक-दीन-दरिद्र रहते हैं । दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड-आहार की ताक में रहते हैं । कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार पाते हैं, अर्थात् सरलता से अपना पेट भी नहीं भर पाते । किसी प्रकार रूखे-सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार-सम्मान भोजन, वस्त्र आदि समुदय-अभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं अपने दुर्भाग्य को कोसते रहते हैं। अपनी तकदीर को रोते हैं । इस भव में या पूर्वभव में किये पापकर्मों की निन्दा करते हैं। उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित-तिरस्कृत होते हैं। साथ ही वे सत्त्वहीन, क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से रहित, विद्याओं से शून्य एवं सिद्धान्त-शास्त्र के ज्ञान से शून्य होते हैं । यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं । सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं—पेट भरते हैं। लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं ।
विवेचन–प्रस्तुत पाठ में संसार-महासमुद्र का प्ररूपण किया गया है। संसार का अर्थ हैसंसरण-गमनागमन करना । देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकगति में जन्म-मरण करना ही संसार कहलाता है । इन चार गतियों में परिभ्रमण करने के कारण इसे चातुर्गतिक भी कहते हैं। इन चार गतियों में नरकगति एकान्ततः दुःखों और भीषण यातनाओं से परिपूर्ण है। तिर्यंचगति में भी दुःखों को हो बहुलता है। मनुष्य और देवगति भी दुःखों से अछूती नहीं है। इनके सम्बन्ध में प्रथम आस्रवद्वार में विस्तार से कहा जा चुका है।।
यहाँ बतलाया गया है कि संसार सागर है। चार गतियाँ इनकी चारों ओर की बाह्य परिधि-घेरा हैं । समुद्र में विशाल सलिल-राशि होती है तो इसमें जन्म-जरा-मरण एवं भयंकर दुःख रूपी जल है। सागर का जल जैसे क्षुब्ध हो जाता है, उसी प्रकार संसार में यह जल भी क्षुब्ध रहता है। जैसे सागर में आकाश को स्पर्श करती लहरें उठती रहती हैं, उसी प्रकार संसार में इष्टवियोग, अनिष्ट-संयोग से उत्पन्न होने वाली बड़ी-बड़ी चिन्ताएँ एवं वध-बंधादि की यातनाएँ उत्पन्न होती रहती हैं । ये ही इस सागर की लहरें हैं। जैसे समुद्र में जगह-जगह पहाड़-चट्टानें होती हैं, उसी प्रकार यहाँ ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि पाठ कर्म रूपी पर्वत हैं। इनके टकराव से भीषण लहरें पैदा होती हैं। मृत्यु-भय इस समुद्र की सतह है। क्रोधादि चार कषाय ही संसार-सागर के पाताल-कलश हैं। निरन्तर चालू रहने वाले भव-भवान्तर ही इस समुद्र का असीम जल है। इस जल से यह सदा परिपूर्ण रहता है। अनन्त-असीम तृष्णा, विविध प्रकार के मंसूबे, कामनाएँ,
आशाएँ तथा मलीन मनोभावनाएँ ही यहाँ प्रचण्ड वायु-वेग है, जिसके कारण संसार सदा क्षोभमय बना रहता है । काम-राग, लालसा, राग, द्वेष एवं अनेकविध संकल्प रूपी सलिल की प्रचुरता के कारण यहाँ अन्धकार छाया रहता है । जैसे समुद्र में भयानक आवर्त होते हैं तो यहाँ तीव्र मोह के