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________________ चोरों को दी जाती हुई भीषण यातनाएँ] [१०३ __ वे चोर स्वजनों द्वारा त्याग दिये जाते हैं राजकोप के भय से कोई स्वजन उनसे संबंध नहीं रखता, मित्रजन उनकी रक्षा नहीं करते। सभी के द्वारा वे तिरस्कृत होते हैं। अतएव वे सभी की ओर से निराश हो जाते हैं। बहुत-से लोग धिक्कार है तुम्हें' इस प्रकार कहते हैं तो वे लज्जित होते हैं अथवा अपनी काली करतूत के कारण अपने परिवार को लज्जित करते हैं। उन लज्जाहीन मनुष्यों को निरन्तर भूखा मरना पड़ता है। चोरी के वे अपराधी सर्दी, गर्मी और प्यास की पीड़ा से कराहते-चिल्लाते रहते हैं। उनका मुख-चेहरा विवर्ण-सहमा हुआ और कान्तिहीन हो जाता है। वे सदा विह्वल या विफल, मलिन और दुर्बल बने रहते हैं। थके-हारे या मुर्भाए रहते हैं, कोई-कोई खांसते रहते हैं और अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं। अथवा भोजन भलीभांति न पचने के कारण उनका शरीर पीडित रहता है। उनके नख, केश और दाढी-मूछों के बाल तथा रोम बढ़ जाते हैं । वे कारागार में अपने ही मल-मूत्र में लिप्त रहते हैं (क्योंकि मल-मूत्र त्यागने के लिए उन्हें अन्यत्र नहीं जाने दिया जाता।) ___ जब इस प्रकार की दुस्सह वेदनाएँ भोगते-भोगते वे, मरने की इच्छा न होने पर भी, मर जाते हैं (तब भी उनकी दुर्दशा का अन्त नहीं होता)। उनके शव के पैरों में रस्सी बांध कर कारागार से बाहर निकाला जाता है और किसी खाई-गड्ढे में फेंक दिया जाता है। तत्पश्चात् भेड़िया, कुत्ते, सियार, शूकर तथा संडासी के समान मुख वाले अन्य पक्षी अपने मुखों से उनके शव को नोच-चींथ डालते हैं। कई शवों को पक्षी-गीध आदि खा जाते हैं। कई चोरों के मृत कलेवर में कीड़े पड़ जाते हैं, उनके शरीर सड़-गल जाते हैं। (इस प्रकार मृत्यु के पश्चात् भी उनकी ऐसी दुर्गति होती है। फिर भी उसका अन्त नहीं पाता)। उसके बाद भी अनिष्ट वचनों से उनकी निन्दा की जाती है उन्हें धिक्कारा जाता है कि अच्छा हुआ जो पापी मर गया अथवा मारा गया। उसकी मृत्यु से सन्तुष्ट हुए लोग उसकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार वे पापी चोर अपनो मौत के पश्चात् भी दीर्घकाल तक अपने स्वजनों को लज्जित करते रहते हैं। विवेचन-उल्लिखित पाठ में भी चोरों को दी जाने वाली भीषण, दुस्सह या असह्य यातनाओं का विवरण दिया गया है। साथ ही बतलाया गया है कि अनेक प्रकार के चोर ऐसे भी होते हैं, जिन्हें प्राणदण्ड-वध के बदले आजीवन कारागार का दण्ड दिया जाता है । मगर यह दण्ड उन्हें प्राणदण्ड से भी अधिक भारी पड़ता है। कारागार में उन्हें भूख, प्यास आदि, सर्दी-गर्मी आदि तथा वध-बन्ध आदि के घोर कष्ट तो सहन करने ही पड़ते हैं, परन्तु कभी-कभी तो उन्हें मल-मूत्र त्यागने के लिए भी अन्यत्र नहीं जाने दिया जाता और वे जिस स्थान में रहते हैं, वहीं उन्हें मल-मूत्र त्यागने को विवश होना पड़ता है और उनका शरीर अपने ही त्यागे हुए मल-मूत्र से लिप्त हो जाता है; अदत्तादान-कर्ताओं की यह दशा कितनी दयनीय होती है ! ऐसी अवस्था में आजीवन रहना कितनी बड़ी विडम्बना है, यह कल्पना करना भी कठिन है। जब वे चोर ऊपर मूल पाठ में बतलाई गई यातनाओं को अधिक सहन करने में असमर्थ हो कर अकालमृत्यु या यथाकालमृत्यु के शिकार हो जाते हैं तो उनके शव की भी विडम्बना होती है । शव के हाथों-पैरों में रस्सी बांध कर उसे घसीटा जाता है और किसी खड्डे या खाई में फेंक दिया जाता है। गीध और सियार उसे नोंच-नोंच कर खाते हैं, वह सड़ता-गलता रहता है, उसमें असंख्य कीड़े विलविलाते हैं। इधर यह दुर्दशा होती है और उधर लोग उसकी मौत का समाचार पाकर उसे
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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