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________________ ९८ ] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. ३ समान घातक काले लोहे के नोकदार डंडे छाती, पेट, गुदा और पीठ में भोंक देने से वे अत्यन्त पीड़ा अनुभव करते हैं । ऐसी-ऐसी यातनाएँ पहुँचाने के कारण अत्तादान करने वालों का हृदय मथ दिया जाता है और उनके अंग-प्रत्यंग चूर-चूर हो जाते हैं । कोई-कोई अपराध किये विना ही वैरी बने हुए पुलिस -- सिपाही या कारागार के कर्मचारी यमदूतों के समान मार-पीट करते हैं । इस प्रकार वे अभागे – मन्दपुण्य चोर वहाँ - कारागार में थप्पड़ों, मुक्कों, चर्मपट्टों, लोहे के कुशों, लोहमय तीक्ष्ण शस्त्रों, चाबुकों, लातों, मोटे रस्सों और बेतों के सैकड़ों प्रहारों से अंग-अंग को ताड़ना देकर पीड़ित किये जाते हैं । लटकती हुई चमड़ी पर हुए घावों की वेदना से उन बेचारे चोरों का मन उदास हो जाता है— मूढ बन जाता है । लोहे के घनों से कूट-कूट कर बनायी हुई दोनों बेड़ियों को पहनाये रखने के कारण उनके अंग सिकुड़ जाते हैं, मुड़ जाते हैं और शिथिल पड़ जाते हैं । यहाँ तक कि उनका मल-मूत्रत्याग भी रोक दिया जाता है, अथवा उन्हें निरुच्चार कर दिया जाता है अर्थात् उनका बोलना बंद कर दिया जाता है । वे इधर-उधर संचरण नहीं कर पाते — उनका चलना-फिरना रोक दिया जाता है । ये और इसी प्रकार की अन्यान्य वेदनाएँ वे प्रदत्तादान का पाप करने वाले पापी प्राप्त करते हैं । विवेचन – सूत्र का भाव स्पष्ट है । चोर को दिया जाने वाला दण्ड ७३ - प्रतिदिया वसट्टा बहुमोहमोहिया परधणम्मि लुद्धा फासिंदिय-विसय तिव्वगिद्धा इस्थिगयख्वसद्द रसगंधइट्टरइमहियभोगतन्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे णरंगणा, पुणरवि ते कम्मदुब्बियद्धा उवणीया रायककराण तेसि वहसत्थगपाढयाणं विलउलीकारगाणं लंचसयगेण्हगाणं कूडकवडमाया-णियडि-प्राय रणपणिहिवंचणविसारयाणं बहुविहस्रलियसयजं पगाणं परलोय - परम्हाणं णिरयइगामियाणं तेहि प्राणत्त-जीयदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरे सिंघाडग-तिय- चउक्क-चच्चर- चउम्मुहमहापहपहेसु वेत-दंड-लउड-कट्ठलेट्ठ-पत्थर - पणालिपणोल्लिमुट्ठि-लया-पायपहि-जाणु- कोप्पर-पहारसंभग्ग - महियगत्ता । ७३ - जिन्होंने अपनी इन्द्रियों का दमन नहीं किया है— जो अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख सके हैं बल्कि स्वयं इन्द्रियों के दास बन गए हैं, वशीभूत हो रहे हैं, जो तीव्र आसक्ति के कारण मूढ - हिता हित के विवेक से रहित बन गए हैं, परकीय धन में लुब्ध हैं, स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में तीव्र रूप से गृद्ध-आसक्त हैं, स्त्री सम्बन्धी रूप, शब्द, रस और गंध में इष्ट रति तथा इष्ट भोग की तृष्णा से व्याकुल बने हुए हैं, जो केवल धन की प्राप्ति में ही सन्तोष मानते हैं, ऐसे मनुष्यगण – चोरराजकीय पुरुषों द्वारा पकड़ लिये जाते हैं, फिर भी ( पहले कभी ऐसी यातनाएँ भोग लेने पर भी ) वे पापकर्म के परिणाम को नहीं समझते । वे राजपुरुष अर्थात् प्रारक्षक - पुलिस के सिपाही -- वधशास्त्र के पाठक होते हैं अर्थात् वध की विधियों को गहराई से समझते हैं । अन्याययुक्त कर्म करने वाले या चोरों को गिरफ्तार करने में चतुर होते हैं । वे तत्काल समझ जाते हैं कि यह चोर अथवा लम्पट है । वे सैकड़ों अथवा सैकड़ों वार लांच - रिश्वत लेते हैं । झूठ, कपट, माया, निकृति करके वेषपरिवर्तन आदि करके चोर को पकड़ने तथा उससे अपराध स्वीकार कराने में अत्यन्त कुशल होते हैं-गुप्तचरी के काम में प्रति चतुर होते हैं । वे नरकगतिगामी, परलोक से विमुख एवं अनेक प्रकार से सैकड़ों असत्य भाषण करने वाले, ऐसे राजकिकरों— सरकारी कर्मचारियों के समक्ष उपस्थित कर दिये जाते
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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