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________________ ८] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. १, अ.३ ६३-इनके अतिरिक्त विपुल बल-सेना और परिग्रह-धनादि सम्पत्ति या परिवार वाले राजा लोग भी, जो पराये धन में गृद्ध अर्थात् आसक्त हैं और अपने द्रव्य से जिन्हें सन्तोष नहीं है, दूसरे (राजाओं के) देश-प्रदेश पर आक्रमण करते हैं। वे लोभी राजा दूसरे के धनादि को हथियाने के उद्देश्य से रथसेना, गजसेना, अश्वसेना और पैदलसेना, इस प्रकार चतुरंगिणी सेना के साथ (अभियान करते हैं।) वे दृढ़ निश्चय वाले, श्रेष्ठ योद्धाओ के साथ युद्ध करने में विश्वास रखने वाले, 'मैं पहले जूझूगा', इस प्रकार के दर्प से परिपूर्ण सैनिकों से संपरिक्त-घिरे हुए होते हैं। वे नाना प्रकार के व्यूहों (मोर्चों) की रचना करते हैं, जैसे कमलपत्र के आकार का पद्मपत्र व्यूह, बैलगाड़ी के आकार का शकटव्यह, सई के प्राकार का शचीव्यह, चक्र के आकार का चक्रव्यूह, समुद्र के आकार का सागरव्यूह और गरुड़ के आकार का गरुड़व्यूह । इस तरह नाना प्रकार की व्यूहरचना वाली सेना द्वारा दूसरे-विरोधी राजा की सेना को आक्रान्त करते हैं, अर्थात् अपनी विशाल सेना से विपक्ष की सेना को घेर लेते हैं- उस पर छा जाते हैं और उसे पराजित करके दूसरे की धन-सम्पत्ति को हरण कर लेते हैं-लूट लेते हैं। विवेचन-प्राप्त धन-सम्पत्ति तथा भोगोपभोग के अन्य साधनों में सन्तोष न होना और परकीय वस्तयों में ग्रासक्ति होना अदत्तादान के प्राचरण का मूल कारण है। असन्तोष और तृष्णा की अग्नि जिसके हृदय में प्रज्वलित है, वह विपुल सामग्री, ऐश्वर्य एवं धनादि के विद्यमान होने पर भी शान्ति का अनुभव नहीं कर पाता। जैसे बाहर की आग ईंधन से शान्त नहीं होती, अपितु बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार असन्तोष एवं तृष्णा की आन्तरिक अग्नि भी प्राप्ति से शान्त नहीं होती, वह अधिकाधिक वृद्धिंगत ही होती जाती है । शास्त्रकार का यह कथन अनुभवसिद्ध है कि जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो विवड्ढइ । ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। तथ्य यह है कि लाभ लोभ की वृद्धि का कारण है। ईंधन जब अग्नि की वृद्धि का कारण है तो उसे आग में झोंकने से आग शान्त कैसे हो सकती है ! इसी प्रकार जब लाभ लोभ को वृद्धि का कारण है तो लाभ से लोभ कैसे उपशान्त हो सकता है ? भला राजाओं को किस वस्तु का अभाव हो सकता है ! फिर भी वे परकीय धन में गृद्धि के कारण अपनी सबल सेना को युद्ध में झोंक देते हैं। उन्हें यह विवेक नहीं होता कि मात्र अपनी प्रगाढ़ आसक्ति की पूर्ति के लिए वे कितने योद्धाओं का संहार कर रहे हैं और कितने उनके आश्रित जनों को भयानक संकट में डाल रहे हैं। वे यह भी नहीं समझ पाते कि परकीय धन-सम्पदा को लट लेने के पश्चात् भी प्रासक्ति की आग बुझने वाली नहीं है। उनके विवेक-नेत्र बन्द हो जाते हैं। लोभ उन्हें अन्धा बना देता है। प्रस्तुत पाठ का आशय यही है कि अदत्तादान का मूल अपनी वस्तु में सन्तुष्ट न होना और परकीय पदार्थों में आसक्ति-गृद्धि होना है। अतएव जो अदत्तादान के पाप से बचना चाहते हैं और अपने जीवन में सुख-शान्ति चाहते हैं, उन्हें प्राप्त सामग्री में सन्तुष्ट रहना चाहिए और परायी वस्तु की आकांक्षा से दूर रहना चाहिए ।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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