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तृतीय अध्ययन : अदत्तादान
दूसरे मृषावाद-आस्रवद्वार के निरूपण के पश्चात् अब तीसरे अदत्तादान-प्रास्रव का निरूपण किया जाता है, क्योंकि मषावाद और अदत्तादान में घनिष्ठ सम्बन्ध है। अदत्तादान में वाला प्रायः असत्य भाषण करता है । सर्वप्रथम अदत्तादान के स्वरूप का निरूपण प्रस्तुत है:अदत्त का परिचय
६०-जंबू ! तइयं च अदिण्णादाणं हर-दह-मरणभय-कलुस-तासण-परसंतिग-अभेज्ज-लोभमूलं कालविसमसंसियं अहोऽच्छिण्ण-तण्हपत्थाण-पत्थोइमइयं प्रकित्तिकरणं अण्णज्जं छिद्दमंतर-विहुरवसण-मग्गण-उस्तवमत्त-प्पमत्त पसुत्त-वंचणक्खिवण-घायणपरं अणिहुयपरिणामं तक्कर-जणबहुमयं अकलुणं रायपुरिस-रक्खियं सया साहु-गरहणिज्जं पियजण-मित्तजण-भेय-विप्पिइकारगं रागदोसबहुलं पुणो य उप्पूरसमरसंगामडमर-कलिकलहवेहकरणं दुग्गइविणिवायवडणं-भवपुणब्भवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं । तइयं अहम्मवारं।
६०-श्रीसुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहा हे जम्बू ! तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान-प्रदत्त-विना दी गई किसी दूसरे की वस्तु को आदान- ग्रहण करना, है। यह अदत्तादान (परकीय पदार्थ का) हरण रूप है । हृदय को जलाने वाला है। मरण और भय रूप अथवा मरण-भय रूप है। पापमय होने से कलुषित-मलीन है। परकीय धनादि में रौद्रध्यानस्वरूप मूर्छा-लोभ ही इसका मूल है। विषमकाल-आधी रात्रि आदि और विषमस्थान-पर्वत, सघन वन
आदि स्थानों पर आश्रित है अर्थात चोरी करने वाले विषम काल और विषम देश की तलाश में रहते हैं। यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है अर्थात् अदत्तादान करने वाले की बुद्धि ऐसी कलुषित हो जाती है कि वह अधोगति में ले जाती है। अदत्तादान अपयश का कारण है, अनार्य पुरुषों द्वारा प्राचरित है, आर्य-श्रेष्ठ मनुष्य कभी अदत्तादान नहीं करते । यह छिद्र-प्रवेशद्वार, अन्तर—अवसर, विधर-अपाय एवं व्यसन राजा आदि द्वारा उत्प की जाने वाली विपत्ति का मार्गण करने वाला-उसका पात्र है । उत्सवों के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगने वाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और घात करने में तत्पर है तथा प्रशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा बहुमत-अत्यन्त मान्य है । यह करुणाहीन कृत्य-निर्दयता से परिपूर्ण कार्य है, राजपुरुषों-चौकीदार, कोतवाल, पूलिस आदि द्वारा इसे रोका जाता है । सदैव साधुजनों-सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है। प्रियजनों तथा मित्रजनों में (परस्पर) फूट और अप्रीति उत्पन्न करने वाला है। राग और द्वेष की बहुलता वाला है। यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों, स्वचक्र-परचक्र सम्बन्धी डमरों-विप्लवों, लड़ाईझगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है । दुर्गति–पतन में वृद्धि करने वाला, भव-पुनर्भववारंवार जन्म-मरण कराने वाला, चिरकाल-सदाकाल से परिचित, प्रात्मा के साथ लगा हुआ-जीवों का पीछा करने वाला और परिणाम में अन्त में दुःखदायी है। यह तीसरा अधर्मद्वार-प्रदत्तादान ऐसा है।