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[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. १, अ. २
१. असत्य भाषण का जो पहले और यहाँ फल निरूपित किया गया है, वह सूत्रकार ने स्वकीय मनीषा से नहीं निरूपित किया है किन्तु ज्ञातकुलनन्दन भगवान् महावीर जिन के द्वारा प्ररूपित है । यह लिख कर शास्त्रकार ने इस समग्र कथन की प्रामाणिकता प्रकट की है । भगवान् के लिए 'जिन' विशेषण का प्रयोग किया गया है। जिन का अर्थ है - वीतराग-राग-द्वेष आदि विकारों के विजेता । जिसने पूर्ण वीतरागता - जिनत्व प्राप्त कर लिया है, वे अवश्य ही सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होते हैं । इस प्रकार वीतराग प्रौर सर्वज्ञ की वाणी एकान्ततः सत्य ही होती है, उसमें असत्य की आशंका हो ही नहीं सकती। क्योंकि कषाय और अज्ञान ही मिथ्याभाषण के कारण होते - या तो वास्तविक ज्ञान न होने से असत्य भाषण होता है, अथवा किसी कषाय से प्रेरित होकर मनुष्य असत्य भाषण करता है । जिनमें सर्वज्ञता होने से अज्ञान नहीं है और वीतरागता होने से कषाय का लेश भी नहीं है, उनके वचनों में असत्य की संभावना भी नहीं की जा सकती । श्रागम में इसीलिए कहा है
नहीं है।
तमेव सच्चं णीसंकं जं जिर्णोहि पवेइयं ।
अर्थात् जिनेन्द्रों ने जो कहा है वही सत्य है और उस कथन में शंका के लिए कुछ भी स्थान
इस प्रकार यहाँ प्रतिपादित मृषावाद के फलविपाक को पूर्णरूपेण वास्तविक समझना
चाहिए ।
२ – सूत्रकार ने दूसरा तथ्य प्रकट किया है कि मृषावाद के फल को सहस्रों वर्षों तक भोगना पड़ता है । यहाँ मूल पाठ में 'वास सहस्सेहि' पद का प्रयोग किया गया है । यह पद यहाँ दीर्घ काल का वाचक समझना चाहिए। जैसे 'मुहुत्तं' शब्द स्तोक काल का भी वाचक होता है, वैसे ही 'वाससहस्से हि ' पद लम्बे समय का वाचक है। अथवा 'सहस्र' शब्द में बहुवचन का प्रयोग करके सूत्रकार ने दीर्घकालिक फलभोग का अभिप्राय प्रकट किया है ।
३ - तीसरा तथ्य यहाँ फल की अवश्यमेव उपभोग्यता कहा है । असत्य भाषण का दारुण दुःखमय फल भोगे विना जीव को उससे छुटकारा नहीं मिलता। क्योंकि वह विपाक 'बहुरयप्पगाढों' होता है, अर्थात् अलीक भाषण से जिन कर्मों का बंध होता है, वे बहुत गाढे चिकने होते हैं, अतएव विपाकोदय से भोगने पड़ते हैं ।
यों तो कोई भी बद्ध कर्म भोगे विना नहीं निर्जीर्ण होता - छूटता । विपाक द्वारा अथवा प्रदेशों द्वारा उसे भोगना हो पड़ता है । परन्तु कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो केवल प्रदेशों से उदय में
कर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं, उनके विपाक फल का अनुभव नहीं होता । किन्तु गाढ रूप में बद्ध कर्म विपाक द्वारा ही भोगने पड़ते हैं । असत्य भाषण एक घोर पाप है और जब वह तीव्रभाव से किया जाता है तो गाढ कर्मबंध का कारण होता है । उसे भोगना ही पड़ता है ।
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उपसंहार
५९ (ख) – एयं तं बिईयं पि श्रलियवयणं लहुसग - लहु-चवल- भणियं भयंकरं दुहकरं अयसकरं वेरकरगं अरइ- रइ-राग-दोस- मणसंकिलेस - वियरणं श्रलिय- णियडि-साइजोगबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अपचयकारगं परम- साहुगरहणिज्जं पर पीलाकारगं परमकण्हलेस्ससहियं दुग्गइ - विणिवायवडणं पुणभवकरं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं ।
॥ बिईयं श्रहम्मदारं समत्तं ॥