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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. २
पुष्य आदि नक्षत्रों में और नन्दा आदि तिथियों में होने चाहिए। आज स्नपन-सौभाग्य के लिए स्नान करना चाहिए अथवा सौभाग्य एवं समृद्धि के लिए प्रमोद-स्नान कराना चाहिए-आज प्रमोदपूर्वक बहुत विपुल मात्रा में खाद्य पदार्थों एवं मदिरा आदि पेय पदार्थों के भोज के साथ सौभाग्यवृद्धि अथवा पुत्रादि की प्राप्ति के लिए वधू आदि को स्नान कराग्रो तथा (डोरा बांधना आदि) कौतुक करो। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण और अशुभ स्वप्न के फल को निवारण करने के लिए विविध मंत्रादि से संस्कारित जल से स्नान और शान्तिकर्म करो। अपने कुटुम्बीजनों की अथवा अपने जीवन की रक्षा के लिए कृत्रिम-पाटे आदि से बनाये हुए प्रतिशोर्षक (सिर) चण्डी आदि देवियों की भेंट चढ़ायो । अनेक प्रकार की ओषधियों, मद्य, मांस, मिष्ठान्न, अन्न, पान, पुष्पमाला, चन्दन-लेपन, उवटन, दीपक, सुगन्धित धूप, पुष्पों तथा फलों से परिपूर्ण विधिपूर्वक बकरा आदि पशुओं के सिरों को बलि दो। विविध प्रकार की हिंसा करके अशुभ-सूचक उत्पात, प्रकृतिविकार, दुःस्वप्न, अपशकुन, क्रूरग्रहों के प्रकोप, अमंगल सूचक अंगस्फुरण-भुजा आदि अवयवों का फड़कना, आदि के फल को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त करो । अमुक की आजीविका नष्ट–समाप्त कर दो। किसी को कुछ भी दान मत दो। वह मारा गया, यह अच्छा हुआ। उसे काट डाला गया, यह ठीक हुअा । उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले गये, यह अच्छा हुआ।
इस प्रकार किसी के न पूछने पर भी आदेश-उपदेश अथवा कथन करते हुए, मन-वचन-काय से मिथ्या आचरण करने वाले अनार्य, अकुशल, मिथ्यामतों का अनुसरण करने वाले मिथ्या भाषण करते हैं । ऐसे मिथ्याधर्म में निरत लोग मिथ्या कथाओं में रमण करते हुए, नाना प्रकार से असत्य का सेवन करके सन्तोष का अनुभव करते हैं।
विवेचन-कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य एवं हित और अहित के विवेक से रहित होने के कारण अकुशल, पापमय क्रियाओं का आदेश-उपदेश करने के कारण अनार्य एवं मिथ्याशास्त्रों के अनुसार चलने वाले, उन पर आस्था रखने वाले मृषावादी लोग असत्य भाषण करने में आनन्द अनुभव करते है, असत्य को प्रोत्साहन देते हैं और ऐसा करके दूसरों को भ्रान्ति में डालने के साथ-साथ अपनी आत्मा को अधोगति का पात्र बनाते हैं।
पूर्ववर्णित पापमय उपदेश के समान प्रस्तुत पाठ में भी कई ऐसे कर्मों का उल्लेख किया गया है जो लोक में प्रचलित हैं और जिनमें हिंसा होती है। उदाहरणार्थ--युद्ध सम्बन्धी आदेश-उपदेश स्पष्ट ही हिंसामय है । नौकादल को डुबा देना-नष्ट करना, सेना को सुसज्जित करना, उसे युद्ध के मैदान में भेजना अादि । इसी प्रकार देवी-देवताओं के आगे बकरा आदि की बलि देना भी एकान्त हिंसामय कुकृत्य है । कई अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि जीवित बकरे या भैंसे की बलि चढ़ाने में पाप है पर आटे के पिण्ड से उसी की आकृति बनाकर बलि देने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु यह क्रिया भी घोर हिंसा का कारण होती है। कृत्रिम बकरे में बकरे का संकल्प होता है, अतएव उसका वध बकरे के वध के समान ही पापोत्पादक है। जैनागमों में प्रसिद्ध काल कसाई का उदाहरण भी यही सिद्ध करता है, जो अपने शरीर के मैल से भैसे बनाकर-मैल के पिण्डों में भैंसों का संकल्प करके उनका उपमर्दन करता था। परिणाम स्वरूप उसे नरक का अतिथि बनना पड़ा था।
प्रस्तुत पाठ से यह भी प्रतीत होता है कि आजकल की भांति प्राचीन काल में भी अनेक प्रकार की अन्धश्रद्धा-लोकमूढता प्रचलित थी। ऐसी अनेक अन्धश्रद्धानों का उल्लेख यहाँ किया गया है।