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________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. २ यदि यह सब ईश्वर की क्रीडा है-लीला है तो फिर उसमें और बालक में क्या अन्तर रहा ? फिर यह लीला कितनी क्रूरतापूर्ण है ? इस प्रकार ये सारी कल्पनाएँ ईश्वर के स्वरूप को दूषित करने वाली हैं। सब मृषावाद है। एकात्मवाद-प्रस्तुत सूत्र में एकात्मवाद की मान्यता का उल्लेख करके उसे मृषावाद बतलाया गया है। यह वेदान्तदर्शन की मान्यता है ।' यद्यपि जैनागमों में भी संग्रहनय के दृष्टिकोण से आत्मा के एकत्व का कथन किया गया है किन्तु व्यवहार आदि अन्य नयों की अपेक्षा भिन्नता भी प्रतिपादित की गई है। द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तानन्त आत्माएँ हैं। वे सब पृथक-पृथक, एक दूसरी से असंबद्ध, स्वतंत्र हैं । एकान्तरूप से आत्मा को एक मानना प्रत्यक्ष से और युक्तियों से भी बाधित है । मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा, वनस्पति आदि के रूप में आत्मा का अनेकत्व प्रत्यक्षसिद्ध है । अगर आत्मा एकान्ततः एक ही हो तो एक का मरण होने पर सब का मरण और एक का जन्म होने पर सब का जन्म होना चाहिए। एक के सुखी या दुःखी होने पर सब को सुखी या दुःखी होना चाहिए। किसी के पुण्य-पाप पृथक् नहीं होने चाहिए। इसके अतिरिक्त पिता-पुत्र में, पत्नी-पुत्रीमाता आदि में भी भेद नहीं होना चाहिए। इस प्रकार सभी लौकिक एवं लोकोत्तर व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाएँगी । अतएव एकात्मवाद भी मृषावाद है । प्रकर्तृवाद-सांख्यमत के अनुसार प्रात्मा अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापक और अक्रिय है । वह अकर्ता है, निर्गुण है और सूक्ष्म है । वे कहते हैं न तो आत्मा बद्ध होता है, न उसे मोक्ष होता है और न वह संसरण करताएक भव से दूसरे भव में जाता है। मात्र नाना पुरुषों के आश्रित प्रकृति को ही संसार, बन्ध और मोक्ष होता है। सांख्यमत में मौलिक तत्त्व दो हैं-पुरुष अर्थात् प्रात्मा तथा प्रधान अर्थात् प्रकृति । सष्टि के आविर्भाव के समय प्रकृति से बुद्धितत्त्व, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, और पाँच तन्मात्र अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द तथा इन पाँच तन्मात्रों से पृथ्वी आदि पाँच महाभूतों का उद्भव होता है । यह सांख्यसृष्टि की प्रक्रिया है । सांख्य पुरुष (आत्मा) को नित्य, व्यापक और निष्क्रिय कहते हैं । अतएव वह अकर्ता भी है । विचारणीय यह है कि यदि आत्मा कर्ता नहीं है तो भोक्ता कैसे हो सकता है ? जिसने शुभ या अशुभ कर्म नहीं किए हैं, वह उनका फल क्यों भोगता है ? १. एक एव हि भूतात्मा, भूते-भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। २. अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म-आत्मा कापिलदर्शने ।। ३. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते संसरतिः कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ।। -सांख्यकारिका
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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