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________________ ३८] [ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् दस के आधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा धुंघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव आकाश में स्थित होकर (अभयकुमार से इस प्रकार बोला-) यह एक प्रकार का गम-पाठ है। इसके स्थान पर दूसरा भी पाठ है। वह इस प्रकार है वह देव उत्कृष्ट, त्वरा वाली, चपल-कायिक, चपलता वाली, अति उत्कर्ष के कारण चंडभयानक, दृढ़ता के कारण सिंह जैसी, गर्व की प्रचुरता के कारण उद्धत, शत्रु को जीतने से जय करने वाली, छेक अर्थात् निपुणता वाली और दिव्य देवगति से जहां जम्बूद्वीप था, भारतवर्ष था और जहाँ दक्षिणार्धभरत था, उसमें भी राजगृह नगर था और जहां पौषधशाला में अभयकुमार था, वहीं आता है, आकर के आकाश में स्थित होकर पांच वर्ण वाले एवं धुंघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव अभयकुमार से इस प्रकार कहने लगा ७१–'अहं णं देवाणुप्पिया! पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए, जं णं तुम पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं ममं मणसि करेमाणे चिट्ठसि, तं एस णं देवाणुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए। संदिसाहि णं देवाणुप्पिया! किं करेमि ? किं दलामि? किं पयच्छामि ? किं वा ते हिय-इच्छितं?' ___ 'हे देवानुप्रिय! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूं। क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् मेरा स्मरण कर रहे हो, इसी कारण हे देवानुप्रिय! मैं शीघ्र यहाँ आया हूं। हे देवानुप्रिय! बताओ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूँ? तुम्हें क्या हूँ? तुम्हारे किसी संबंधी को क्या दूँ? तुम्हारा मनोवांछित क्या है?' ७२-तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवन्नं पासइ। पासित्ता हट्टतुट्ठ पोसहं पारेइ, पारित्ता करयल० अंजलिं कट्ट एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ! तहेव पुव्वगमेणंजाव विणिजामि।तंणं तुम देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेहि। तत्पश्चात् अभयकुमार ने आकाश में स्थित पूर्वभव के मित्र उस देव को देखा। देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुआ। पौषध को पारा-पूर्ण किया। फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! मेरी छोटी माता धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल-दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने अकाल मेघ-दोहद को पूर्ण करती हैं यावत् मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूँ।' इत्यादि पूर्व के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए। सो हे देवानुप्रिय! तुम मेरी छोटी माता धारिणी के इस प्रकार के दोहद को पूर्ण कर दो।' अकाल-मेघविक्रिया ७३–तए णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे अभयकुमारं एवं वयासी'तुमं णं देवाणुप्पिया! सुणिव्यवीसत्थे अच्छाहि। अहं णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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