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________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ] [३५ श्रेणिक राजा, अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ। वह अभयकुमार का सत्कार करता है, सन्मान करता है। सत्कार-सम्मान करके विदा करता है। ६५-तए णं से अभयकुमारे सक्कारिय-सम्माणिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ। पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीहासणे निसन्ने। ___ तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर विदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से निकलता है। निकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है। आकर वह सिंहासन पर बैठ गया। अभय की देवाराधना ६६-तए णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव [चिंतिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे ] समुप्पज्जित्था-नो खलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्तिं करेत्तए, णन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं । अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगतिए देवे महिड्डीए जाव [महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महाणुभावे ] महासोक्खे।तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमाला-वन्नगविलेवणस्स निक्खत्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगयस्स अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए।तते णं पुव्वसंगतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसुडोहलं विणिहिइ। तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक (आंतरिक) विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय के विना केवल मानवीय उपाय से छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-दोहद के मनोरथ की पर्ति होना शक्य नहीं है। सौधर्म कल्प में रहने व पूर्व का मित्र है, जो महान् ऋद्धिधारक यावत् (महान् द्युतिवाला, महापराक्रमी, महान् यशस्वी, महान् बलशाली, महानुभाव) महान् सुख भोगने वाला है। तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके, ब्रह्मचर्य धारण करके, मणि-सुवर्ण आदि के अलंकारों का त्याग करके, माला वर्णक और विलेपन का त्याग करके, शस्त्र-मूसल आदि अर्थात् समस्त आरम्भ-समारम्भ को छोड़ कर, एकाकी (राग-द्वेष से रहित) और अद्वितीय (सेवक आदि की सहायता रहित) होकर, डाभ के संथारे पर स्थित होकर, अष्टमभक्त-तेला की तपस्या ग्रहण करके, पहले के मित्र देव का मन में चिन्तन करता हुआ स्थित रहूँ। ऐसा करने से वह पूर्व का मित्र देव (यहाँ आकर) मेरी छोटी माता धारिणी देवी के अकाल-मेघों संबंधी दोहद को पूर्ण कर देगा। ६७-एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमजति, पमजित्ता उच्चार-पासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ, परिगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ। अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है। विचार करके जहाँ पौषधशाला है, वहाँ जाता है। जाकर पौषधशाला का प्रमार्जन करता है। उच्चार-प्रस्रवण की भूमि (मल-मूत्र त्यागने के स्थान) का प्रतिलेखन करता
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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