SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात] [१५ सुशोभित हो रहे थे। उसमें सुगंधित और श्रेष्ठ पुष्पों से कोमल और रुएँदार शय्या का उपचार किया गया था। वह मन एवं हृदय को आनन्दित करने वाला था। कपूर, लौंग, मलयज चन्दन, कृष्ण अगर, उत्तम कुन्दुरुक्क (चीड़ा), तुरुष्क (लोभान) और अनेक सुगंधित द्रव्य से बने हुए धूप के जलने से उत्पन्न हुई मघमघाती गंध से रमणीय था। उसमें उत्तम चूर्णों की गंध भी विद्यमान थी। सुगंध की अधिकता के कारण वह गंध-द्रव्य की वट्टी ही जैसा प्रतीत होता था। मणियों की किरणों के प्रकाश से वहाँ का अंधकार गायब हो गया था। अधिक क्या कहा जाय? वह अपनी चमक-दमक से तथा गुणों से उत्तम देवविमान को भी पराजित करता था। इस प्रकार के उत्तम भवन में एक शय्या बिछी थी। उस पर शरीर-प्रमाण उपधान बिछा था। उसमें दोनों ओर-सिरहाने और पाँयते की जगह तकिए लगे थे। वह दोनों तरफ ऊँची और मध्य में झुकी हुई थीगंभीर थी। जैसे गंगा के किनारे की बालू में पाँव रखने से पाँव फँस जाता है, उसी प्रकार उसमें फँस जाता था। कसीदा काढ़े हुए क्षौमदुकूल का चद्दर बिछा हुआ था। वह आस्तरक, मलक, नवत, कुशक्त, लिम्ब और सिंहकेसर नामक आस्तरणों से आच्छादित था। जब उसका सेवन नहीं किया जाता था तब उसपर सुन्दर हआ राजस्त्राण पडा रहता था-उस पर मसहरी लगी हई थी, वह अति रमणीय थी। उसका स्पर्श आजिनक (चर्म का वस्त्र), रूई, बूर नामक वनस्पति और मक्खन के समान नरम था। ऐसी सुन्दर शय्या पर मध्यरात्रि के समय धारिणी रानी, जब न गहरी नींद में थी और न जाग ही रही थी, बल्कि बार-बार हल्की-सी नींद ले रही थी, ऊँघ रही थी, तब उसने एक महान्, सात हाथ ऊँचा, रजतकूट-चाँदी के शिखर के सदृश, श्वेत, सौम्य, सौम्याकृति, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए हाथी को आकाशतल से अपने मुख में प्रवेश करते देखा। देखकर वह जाग गई। स्वप्ननिवेदन १८-तएणंसा धारिणी देवी अयमेयारूवं उरालं, कल्लाणं सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुमिणंपासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठा चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहिययाधाराहयकलंबपुष्फगंपिवसमुससियरोमकूवातंसुमिणं ओगिण्हइ।ओगिण्हइत्ता सयणिज्जाओ उट्टेति, उढेइत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता सेणियं रायंताहिं इट्ठाहिं कंताहिं, पियाहिमणुन्नाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्याणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं, हिययगमणिजाहिं, हिययपल्हायणिजाहि मिय-महुर-रिभिय-गंभीरसस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ।पडिबोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अब्भणुनाया समाणी णाणामणि-कणग-रयण-भत्ति चित्तंसि भद्दासणंसि निसीयइ। निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट, सेणियं रायं एवं वयासी। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी इस प्रकार के इस स्वरूप वाले, उदार प्रधान, कल्याणकारी, शिवउपद्रव का नाश करने वाले, धन्य-धन प्राप्ति कराने वाले, मांगलिक-पाप विनाशक एवं सुशोभित महास्वप्न को देखकर जागी। उसे हर्ष और संतोष हुआ। चित्त में आनन्द हुआ। मन में प्रीति उत्पन्न हुई। परम प्रसन्नता हुई। हर्ष के वशीभूत होकर उसका हृदय विकसित हो गया। मेघ की धाराओं का आघात पाए कदम्ब के फूल के समान उसे रोमांच हो आया। उसने स्वप्न का विचार किया। विचार करके शय्या से उठी और उठकर पादपीठ से नीचे उतरी। नीचे उतर मानसिक त्वरा से रहित, शारीरिक चपलता से रहित, स्खलना से रहित,
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy