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[ ज्ञाताधर्मकथा
अभयदएणं, सरणदएणं, चक्खुदएणं, मग्गदएणं, बोहिदएणं, धम्मदएणं, धम्मदेसणं, धम्मनायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं, वियट्टछउमेणं, जिणेणं, जावएणं' तिन्त्रेणं, तारएणं, मुत्तेणं, मोअगेणं, बुद्धेणं, बोहएणं, सव्वन्नूणं, सव्वदरिसीणं सिवमयलमरु अमणतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिअं सासयं ठाणमुवगएणं, पंचमस्स अंगस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, छट्टस्स णं भंते! अंगस्स णायाधम्मकहाणं के अट्ठे पण्णत्ते ?
श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया- भगवन् ! यदि श्रुतधर्म की आदि करने वाले, गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रु का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में गन्धहस्ती के समान, अर्थात् जैसे गन्धहस्ती की गन्ध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्य - प्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता श्रद्धारूप नेत्र के दाता, धर्ममार्ग के दाता, बोंधिदाता, देशविरति और सर्वविरतिरूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चारों गतियों का अन्त करनेवाले धर्म के चक्रवर्ती अथवा सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में धर्म सम्बन्धी चक्रवर्ती - सर्वोत्कृष्ट, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, घातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रागादि को जीतने वाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जिताने वाले, संसार सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं बोध प्राप्त और दूसरों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव - उपद्रवरहित, अचल-चलन आदि क्रिया से रहित, अरुज - शारीरिक व्याधि की वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृत्ति - पुनरागमन से रहित सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पांचवें अंग का यह (जो आपने कहा) अर्थ कहा है, तो भगवन् ! छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा का क्या अर्थ कहा है ?
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सुधर्मास्वामी का समाधान
९ - जंबु त्ति, तए णं अज्जसुहम्मे थेरे अज्जजंबूणामं अणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं छट्टस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजाणायाणि य धम्मकहाओ य ।
'हे जम्बू !' इस प्रकार सम्बोधन करके आर्य सुधर्मा स्थविर ने आर्य जम्बू नामक अनगार से इस प्रकार कहा - जम्बू ! यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने छठे अङ्ग (ज्ञाताधर्मकथा) के दो श्रुतस्कन्ध प्ररूपण किये हैं। वे इस प्रकार हैं-ज्ञात (उदाहरण) और धर्मकथा ।
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- जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा - णायाणि य धम्मकहाओ य, पढमस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स समणेणं जावर संपत्तेणं णायाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ?
१. पाठान्तर - जाणएणं (ज्ञायक)
२-३ - सूत्र ८