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परिशिष्ट १]
[५५७ अठारहवाँ अध्ययन १-जह सो चिलाइपुत्तो, सुंसुमगिद्धो अकजपडिबद्धो।
धण-पारद्धो पत्तो, महाडविं वसणसय-कलिअं॥ २-तह जीवो विसयसुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ।
कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं ॥ ३-धणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहवो भवो अडवी।
सुय-मांसमिवाहारो, रायगिहं इह सिवं नेयं॥ ४-जह अडवि-नयर-नित्थरण-पावणत्थं तएहिं सुयमंसं।
भत्तं तहेह साहू, गुरूण आणाए आहारं ॥ ५-भवलंघण-सिवपावण-हेउं भुंजंति न उण गेहीए।
वण्ण-बल-रूवहेउं, च भावियप्पा महासत्ता॥ १-जैसे चिलातीपुत्र सुंसुमा पर आसक्त होकर कुकर्म करने पर उतारू हो गया और धन्य श्रेष्ठी के पीछा करने पर सैकड़ों संकटों से व्याप्त महा-अटवी को प्राप्त हुआ
. २-उसी प्रकार जीव विषय-सुखों में लुब्ध होकर पापक्रियाएँ करता है। पापक्रियाएँ करके कर्म के वशीभूत होकर इस संसार रूपी अटवी में घोर दुःख पाता है।
__३–यहाँ धन्य श्रेष्ठी के समान गुरु हैं, उसके पुत्रों के समान साधु हैं और अटवी के समान संसार है। सुता (पुत्री) के मांस के समान आहार है और राजगृह के समान मोक्ष है।
___४-जैसे उन्होंने अटवी पार करने और नगर तक पहुँचने के उद्देश्य से ही सुता के माँस का भक्षण किया, उसी प्रकार साधु, गुरु की आज्ञा से आहार करते हैं।
५-वे भावितात्मा एवं महासत्त्वशाली मुनि आहार करते हैं, एक मात्र संसार को पार करने और मोक्ष प्राप्त करने के ही उद्देश्य से। आसक्ति से अथवा शरीर के वर्ण, बल या रूप के लिए नहीं।
उन्नीसवाँ अध्ययन १-वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि।
अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीयव्व॥ २-अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहियसीलसामण्णा।
साहिति निययकजं, पुंडरीयमहारिसि व्व जहा॥ १-कोई हजार वर्ष तक अत्यन्त विपुल-उच्चकोटि के संयम का पालन करे किन्तु अन्त में उसकी भावना संक्लेशयुक्त-मलीन हो जाए तो यह कंडरीक के समान सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
२-इसके विपरीत, कोई शील एवं श्रामण्य-साधुधर्म को अंगीकार करके अल्प काल में भी महर्षि पुंडरीक के समान अपने प्रयोजन को-शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं।