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________________ ५५६] [ज्ञाताधर्मकथा अथवा इस अध्ययन का उपनय इस प्रकार समझना चाहिए-सुपात्र को भी दिया गया आहार अगर अमनोज्ञ हो और भक्तिपूर्वक न दिया गया हो तो अनर्थ का कारण होता है, जैसे नागश्री ब्राह्मणी के भव - में द्रौपदी के जीव द्वारा दिया कटुक तुम्बे का दान। सत्तरहवाँ अध्ययन १-जह सो कालियदीवो अणुवमसोक्खो तहेव जइधम्मो। जह आसा तह साहू, वणियव्वऽणुकूलकारिजणा॥ २-जह सदाइ-अगिद्धा पत्ता नो पासबंधणं आसा। ___तह विसएसु अगिद्धा, वझंति न कम्मणा साहू॥ ३-जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह य इह वरमुणीणं। जर-मरणाइविवज्जिय-संपत्ताणंद-निव्वाणं॥ ४-जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबन्धं, परमासुहकारणं घोरं ॥ ५-जह ते कालियदीवा णीया अन्नत्थ दुहगणं पत्ता। तय धम्मपरिब्भट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा॥ ६-पावेंति कम्म-नरवइ-वसया संसार-वाहयालीए। आसप्पमद्दएहि व, नेरइयाईहिं दुक्खाई॥ १-जैसे यहाँ कालिक द्वीप कहा है, वैसे अनुपम सुख प्रदान करने वाला श्रमणधर्म समझना चाहिए। अश्वों के समान साधु और वणिकों के समान अनुकूल उपसर्ग करने वाले (ललचाने वाले) लोग हैं। २-जैसे शब्द आदि विषयों में आसक्त न होने वाले अश्व जाल में नहीं फंसे, उसी प्रकार जो साधु इन्द्रियविषयों में आसक्त नहीं होते हैं वे साधु; कर्मों से बद्ध नहीं होते। ३-जैसे अश्वों का स्वच्छंद विहार कहा, उसी प्रकार श्रेष्ठ मुनिजनों का जरा-मरण से रहित और आनन्दमय निर्वाण समझना। तात्पर्य यह है कि शब्दादि विषयों से विरत रहने वाले अश्व जैसे स्वाधीनइच्छानुसार विचरण करने में समर्थ हुए, वैसे ही विषयों से विरत महामुनि मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। ४-इससे विपरीत शब्दादि विषयों में अनुरक्त हुए अश्व जैसे बन्धन-बद्ध हुए, उसी प्रकार जो विषयों में अनुरागवान् हैं, वे प्राणी अत्यन्त दु:ख के कारणभूत एवं घोर कर्मबन्धन को प्राप्त करते हैं। ___५-जैसे शब्दादि में आसक्त हुए अश्व अन्यत्र ले जाए गए और दुःख-समूह को प्राप्त हुए, उसी प्रकार धर्म से भ्रष्ट जीव अधर्म को प्राप्त होकर दुःखों को प्राप्त होते हैं। ६-ऐसे प्राणी कर्म रूपी राजा के वशीभूत होते हैं। वे सवारी जैसे सांसारिक दुःखों के, अश्वमर्थकों द्वारा होने वाली पीड़ा के समान (परभव में) नारकों द्वारा दिये जाने वाले कष्टों के पात्र बनते हैं।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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