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द्वितीय श्रुतस्कन्ध : चतुर्थ वर्ग]
[५३७ पूर्वभव में चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ चम्पा नगरी में रूपक नामक गाथापति था। रूपकश्री उसकी भार्या थी। रूपा उसकी पुत्री थी। शेष सब वृत्तान्त पूर्ववत् है। विशेषता यह है कि रूपा भूतानन्द नामक इन्द्र की अग्रमहिषी के रूप में जन्मी। उसकी स्थिति कुछ कम एक पल्योपम की है।
यहाँ चौथे वर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेप समझ लेना चाहिए, अर्थात् यह कहना चाहिए कि श्रमण भगवान् महावीर यावत् सिद्धिप्राप्त ने चतुर्थ वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है।
२-६ अध्ययन ६३-एवं सुरूया वि, रूयंसा वि, रूयगावई वि, रूयकंता वि रूयप्पभा वि।
इसी प्रकार सुरूपा भी, रूपांशा भी, रूपवती भी, रूपकान्ता भी और रूपप्रभा के विषय में भी समझ लेना चाहिए, अर्थात् इन पांच देवियों के पांच अध्ययन भी ऐसे ही जानने चाहिएँ।
७-५४ अध्ययन ६४-एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ जाव(वेणुदालिस्स हरिस्सहस्स अग्गिमाणवस्स विसिट्ठस्स, जलप्पभस्स अमितवाहणस्स पभंजणस्स) महाघोसस्स।
निक्खेवओ चतुत्थवग्गस्स।
इसी प्रकार उत्तर दिशा के इन्द्रों की छह-छह पटरानियों के छह-छह अध्ययन कह लेना चाहिए, अर्थात् वेणुदाली, हरिस्सह अग्निमाणवक, विशिष्ट जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन तथा महाघोष की पटरानियों के छह-छह अध्ययन होते हैं। सब मिलकर चौपन अध्ययन हो जाते हैं।
यहाँ चौथे वर्ग का निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् कह लेना चाहिए।
॥चतुर्थ वर्ग समाप्त॥