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[ ज्ञाताधर्मकथा
तब पुष्पचूला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया। यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी। तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी आर्या हो गई। तदनन्तर उस काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या के निकट सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा बहुत-से चतुर्थभक्त-उपवास, [षष्टभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशमभक्त, अर्धमासखमण, मासखमण] आदि तपश्चरण करती हुई विचरने लगी।
२५–तए णं सा काली अजा अन्नया कयाइं सरीरवाउसिया जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणंतराइं धोवइ, कक्खंतराणि धोवइ, गुझंतराइंधोवइ, जत्थ जत्थ वियणं ठाणं वा सेजं वाणिसीहियं वा चेएइ, तं पुव्वामेव अब्भुक्खेत्ता पच्छा आसयइ वा सयइ वा।
तत्पश्चात् किसी समय, एक बार काली आर्या शरीरबाकुशिका (शरीर को साफ-सुथरा रखने की वृत्ति वाली-शरीरासक्त) हो गई। अतएव वह बार-बार हाथ धोने लगी, पैर धोने लगी, सिर धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनों के अन्तर धोने लगी, काँखों के अन्तर-प्रदेश धोने लगी और गुह्यस्थान धोने लगी। जहाँ-जहाँ वह कायोत्सर्ग, शय्या या स्वाध्याय करती थी, उस स्थान पर पहले जल छिड़क कर बाद में बैठती अथवा सोती थी।
____२६-तए णं सा पुप्फचूला अजा कालिं अजं एवं वयासी-'नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिए! समणीणं णिग्गंथीणं सरीरबाउसियाणं होत्तए, तुमंचणं देवाणुप्पिए, सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव आसयाहि वा सयाहि वा, तं तुमं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवजाहि।'
___ तब पुष्पचूला आर्या ने उस काली आर्या से कहा-'देवानुप्रिये! श्रमणी निर्ग्रन्थियों को शरीरबकुशा होना नहीं कल्पता और तुम देवानुप्रिये! शरीरबकुशा हो गई हो। बार-बार हाथ धोती हो, यावत् पानी छिड़ककर बैठती और सोती हो।अतएव देवानुप्रिये!तुम इस पापस्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित-अंगीकार करो।'
२७-तएणं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए एयमटुंनो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ। तब काली आर्या ने पुष्पचूला आर्या की यह बात स्वीकार नहीं की। यावत् वह चुप बनी रही।
२८-तएणं ताओ पुष्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अजं अभिक्खणंअभिक्खणंहीलेंति, णिंदंति, खिसंति, गरिहंति, अवमण्णंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमटुं निवारेंति।
तत्पश्चात् वे पुष्पचूला आदि आर्याएँ, काली आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगीं, निन्दा करने लगीं, चिढ़ने लगीं, गर्दा करने लगीं, अवज्ञा करने लगी और बार-बार इस अर्थ (निषिद्ध कर्म) को रोकने लगीं।
२९-तए णं तीसे कालीए अजाए समणीहिं णिग्गंथीहिं अभिक्खणं अभिक्खणं हीलिजमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झिथिए जाव समुप्पजित्था-'जया णं अहं अगारवासमझे वसित्था, तया णं अहं सयंवसा, जप्पभिइं च णं अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पभिई च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते पाडिक्कियं उवस्सयं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए'त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता