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द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग]
[५२५ थे, उसी ओर गये। जाकर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करने के पश्चात् इस प्रकार कहा
२२–'एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए? एस णं देवाणुप्पिया! संसार-भउव्विग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता णंजाव पव्वइत्तए, तं एयंणं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणीभिक्खंदलयामी, पडिच्छंतुणं देवाणुप्पिया! सिस्सिणीभिक्खं।'
'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।'
_ 'देवानुप्रिय! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है। हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है। देवानुप्रिय! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर प्रव्रजित होने की इच्छा करती है। अतएव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को अर्पित करते हैं। देवानुप्रिय! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें।'
तब भगवान् बोले-'देवानुप्रिय! जैसे सुख उपजे, करो। धर्मकार्य में विलम्ब न करो।'
२३–तए णं सा काली कुमारी पासं अरहं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभायं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करित्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते! लोए, एवं जहा देवाणंदा', जाव सयमेव पव्वावेउं।
तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके वह उत्तरपूर्व (ईशान) दिशा के भाग में गई। वहाँ जाकर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया। फिर जहाँ पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व थे वहाँ आई। आकर पार्श्व अरिहन्त को तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'भगवन्! यह लोक आदीप्त है अर्थात् जन्म-मरण आदि के संताप से जल रहा है, इत्यादि (भगवतीसूत्रवर्णित) देवानन्दा के समान जानना चाहिए। यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान करें।
२४-तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुष्फचूलाए अजाए सिस्सिणियत्ताए दलयति।
तए णं सा पुष्फचूला अजा कालिं कुमारि सयमेव पव्वावेइ, जाव उवसंपजित्ता णं विहरइ। तए णं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव' गुत्तबंभयारिणी। तए णं सा काली अजा पुष्फचूलाअजाए अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ, बहूणि चउत्थ जाव [छट्टट्ठम-दसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी] विहरइ।
___ तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला आर्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया। १. भगवती. श. ९ २. अ. १४ सूत्र २८.