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________________ ५१४] [ज्ञाताधर्मकथा में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलकारक, देव और चैत्य समान उपासना करने योग्य होता है। इसके अतिरिक्त वह परलोक में भी राजदण्ड, राजनिग्रह, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता, यावत् चतुर्गति रूप संसार-कान्तर को पार कर जाता है, जैसे पुंडरीक अनगार। ३०-एवं खलु जम्बू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स नायजझयणस्स अयमढे पन्नत्ते। जम्बू! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् सिद्धि नामक स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञात-अध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन का यह अर्थ कहा है। ३१-एवं खलुजंबू! समणेणं भगवया महावीरेणंजाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि। श्री सुधर्मास्वामी पुनः कहते हैं-'इस प्रकार हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त जिनेश्वर देव ने इस छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कंध का यह अर्थ कहा है। जैसा सुना वैसा मैंने कहा है-अपनी कल्पना-बुद्धि से नहीं कहा। ३२-तस्स णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंत्ति ॥१४७॥ इस प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं, एक-एक अध्ययन एक-एक दिन में पढ़ने से उन्नीस दिनों में यह अध्ययन पूर्ण होता है (इसके योगवहन में उन्नीस दिन लगते हैं)। ॥उन्नीसवां अध्ययन समाप्त॥ ॥प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त॥
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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