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उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक]
[५१३ पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से
आहारे णो सम्मं परिणमइ।तएणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव' दुरहियासा पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए विहरह।
तत्पश्चात् पुंडरीक अनगार उस कालातिक्रान्त (जिसके खाने का समय बीत गया है ऐसे), रसहीन, खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्मजागरण कर रहे थे। तब वह आहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ। उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई। उनका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा। उग्र साधना का सुफल
२८-तए णं ते पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयलं जाव एवं वयासी
'नमोऽत्थुणं अरिहंताणंजाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मारियाणं धम्मोवएसयाणं, पुदिव पि य णं मए थेराण अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए' जाव आलोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा सव्वट्ठसिद्धे उववण्णे। ततोऽणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।
तत्पश्चात् पुंडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार-पराक्रमहीन हो गये। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा
_ 'यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवान् को नमस्कार हो। स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारहों पापस्थानों) का त्याग किया था' इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हुए। वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, अर्थात् बीच में कहीं अन्यत्र जन्म न लेकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे। यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
२९-एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिंणो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विप्पडिघायमावजइ, से णं इह भवे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिजे वंदणिजे पूयणिजे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जे त्ति कटु परलोए वि य णं णो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरंतसंसारकंतारं जाव वीईवइस्सइ, जहा व से पोंडरीएराया।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य-संबन्धी कामभोगों १. अ. १९, सूत्र २४