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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक] [५०९ लिए कहा। पूछ कर वह स्थविर के साथ बाहर जनपदों में विचरने लगे। उस समय स्थविर के साथसाथ कुछ समय तक उन्होंने उग्र-उग्र विहार किया। उसके बाद वह श्रमणत्व (साधुपन) से थक गये, श्रमणत्व से ऊब गये और श्रमणत्व से निर्भर्त्सना को प्राप्त हुए। साधुता के गुणों से रहित हो गये। अतएव धीरे-धीरे स्थविर के पास से (बिना आज्ञा प्राप्त किये) खिसक गये। खिसक कर जहाँ पुण्डरीकिणी नगरी थी और जहाँ पुण्डरीक राजा का भवन था, उसी तरफ आये। आकर अशोकवाटिका में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर बैठ गये। बैठ कर भग्नमनोरथ एवं चिन्तामग्न हो रहे। १७–तए णं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि ओहयमणसंकप्पंजाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पोंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोंडरीयं रायं एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव पियभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ।' ___तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा की धाय-माता जहाँ अशोकवाटिका थी, वहाँ गई। वहाँ जाकर उसने कण्डरीक अनगार को अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर भग्नमनोरथ यावत् चिन्तामग्न देखा। यह देखकर वह पुण्डरीक राजा के पास गई और उनसे कहने लगी-'देवानुप्रिय! तुम्हारा प्रिय भाई कण्डरीक अनगार अशोकवाटिका में, उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता में डूबा बैठा है।' १८-तए णं पोंडरीए अम्मधाईए एयमटुं सोच्चा णिसम्म तहेव संभन्ते समाणे उट्ठाए उठेइ, उद्वित्ता अंतेउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जाव कंडरीयं तिक्खुत्तो एवं वयासी-'धण्णे सि तुमं देवाणुप्पिया! जाव' पव्वइए, अहं णं अधण्णे जाव' पव्वइत्तए, तं धन्ने सि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव जीवियाफले।' । तब पुण्डरीक राजा, धाय-माता की यह बात सुनते और समझते ही संभ्रान्त हो उठा। उठ कर अन्तःपुर के परिवार के साथ अशोकवाटिका में गया। जाकर यावत् कण्डरीक को तीन बार इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय! तुम धन्य हो कि यावत् दीक्षित हो। मैं अधन्य हूँ कि यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पाता। अतएव देवानुप्रिय! तुम धन्य हो यावत् तुमने मानवीय जन्म और जीवन का सुन्दर फल पाया है।' १९-तए णं कंडरीए पुंडरीएण एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ दोच्चं पि तच्चं पि जाव चिट्ठइ। तत्पश्चात् पुंडरीक राजा के द्वारा इस प्रकार कहने पर कण्डरीक चुपचाप रहा। दूसरी बार और तीसरी बार कहने पर भी यावत् मौन ही बना रहा। १-२. अ. १९ सूत्र १६
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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