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________________ एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वृद्ध श्रावक का अर्थ ब्राह्मण क्यों किया जाय। भगवान् महावीर के समय हजारों की संख्या में पार्वापत्य श्रावक विद्यमान थे। वे वृद्ध श्रावक कहे जा सकते हैं। पर उत्तर में निवेदन है कि आगमसाहित्य में जहाँ पर भी 'बुड्ढ सावय' शब्द व्यवहृत हुआ है वहां 'निगण्ठ' शब्द भी आया है। निर्ग्रन्थपरम्परा दोनों के लिए व्यवहृत होती थी। इसलिए वृद्ध श्रावक पृथक् कहने की आवश्यकता नहीं। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक केवल गृहस्थों के लिए ही नहीं आया है, साधु संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आया है। जैसे 'शाक्य' शब्द उस परम्परा के संन्यासी व गृहस्थ दोनों के लिए आता है, वैसे ही निर्ग्रन्थ शब्द भी दोनों के लिए आता है, एक के लिए उपासक के साथ में आता है। आगमसाहित्य के मंथन से यह भी स्पष्ट है कि वृद्ध श्रावक भगवान् महावीर के समय पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा की क्रियाओं का पालन करते थे उनकी कोई भी क्रिया जैन परम्परा की धार्मिक क्रिया से मेल नहीं खाती थी। आज भले ही श्रावक शब्द ब्राह्मण परम्परा में प्रचलित न हो पर अतीत काल में था। भगवान् ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत उन श्रावकों से प्रतिदिन 'जितो भवान वर्द्धते भीस्तस्मान महान माहन'-'आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, अत: आत्मगुणों का हनन न हो। अतः सावधान रहो।' इसे श्रवण कर अन्तर्मुखी होकर चिन्तन के सागर में डुबकी लगाने लगते। निरन्तर ऊर्ध्वमुखी चिन्तन होने से अनासक्ति की भावना निरन्तर बढ़ती रहती। मा हन का उच्चारण करने वाले वे माहन महान् थे। सम्राट भरत चक्रवर्ती ने उन श्रावकों के स्वाध्याय हेतु (१) संसारदर्शन, (२) संस्थानपरामर्शन (३) तत्त्वबोध (४) विद्याप्रबोध' इन चार आर्यवेदों का निर्माण किया। वे वेद नौवें तीर्थंकर सुविधिनाथ तक चलते रहे। उसके पश्चात् सुलस और यज्ञवल्क्य प्रभृति ऋषियों के द्वारा अन्य वेदों की रचना की गई। "वृद्ध श्रावक" शब्द ब्राह्मण परम्परा का ही सूचक है। यद्यपि इसका प्रादुर्भाव श्रमण परम्परा में हुआ, किन्तु बाद में चलकर वह वैदिक परम्परा के सम्प्रदायविशेष के लिए व्यवहत होने लगा। मेरी दृष्टि से वृद्ध और श्रावक ये दो पृथक् न होकर एक ही होना चाहिए। (१४) रक्तपट-लाल वस्त्रधारी परिव्राजक। इस प्रकार ये शब्द इतिहास और परम्परा के संवाहक हैं। कितने ही शब्द अतीत काल में अत्यन्त गरिमामय रहे हैं और उनका बहुत अधिक प्रचलन भी था, किन्तु समय की अनगिनत परतों के कारण उसकी अर्थ-व्यंजना दूर होती चली गई और वे शब्द आज रहस्यमय बन गये हैं। इसलिए उन शब्दों के अर्थ के अनुसन्धान की आवश्यकता है। सोलहवें अध्ययन में पाण्डवपत्नी द्रौपदी को पद्मनाभ अपहरण कर हस्तिनापुर से अमरकंका ले आता है। हस्तिनापुर कुरुजांगल जनपद की राजधानी थी। हस्तिनापुर के अधिपति श्रेयांस ने ऋषभदेव को सर्वप्रथम आहार दान दिया था। महाभारत के अनुसार सुहोत्र के पुत्र राजा हस्ती ने इस नगर को बसाया था। अतः उसका नाम हस्तिनापुर पड़ा। महाभारत काल में वह कौरवों की राजधानी थी। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को वहाँ का राजा बनाया था। विविध तीर्थकल्प के अभिमतानुसार ऋषभदेव के पुत्र कुरु थे। उनके एक पुत्र हस्ती थे, उन्होंने हस्तिनापुर बसाया था। विष्णुकुमार मुनि ने बलि द्वारा हवन किये जाने वाले ७०० मुनियों की यहाँ रक्षा की थी। सनत्कुमार, महापद्म, सुभौम और परशुराम का जन्म इसी नगरी में हुआ था। इसी नगरी में कार्तिक श्रेष्ठी ने मुनिसुव्रत स्वामी के पास संयम लिया था और सौधर्मेन्द्र पद प्राप्त किया था। शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ इन १. अनुयोगद्वार २०, और २६ २. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र १-६-२४७-२५३ ३. ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ. १६९ (ख) आवश्यक नियुक्ति. (गा.) ३४५ ४. महाभारत, आदि पर्व ९५-३४-२४३ ५. महाभारत, आदि पर्व १००-१२-२४४ ६. महाभारत, प्रस्थान पर्व १-८-२४५ ७. विविध तीर्थकल्प में हस्तिनापुर कल्प, पृ. २७ ८. जयवाणी पृ. २८३-९४ ५२
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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