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[ज्ञाताधर्मकथा
कर्त्तव्य-निर्देश
सद्देसु य भद्दग-पावएसु सोयविसयं उवगएसु।
तुह्रण व रुद्वेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१६॥ साधु को भद्र (शुभ-मनोज्ञ) श्रोत्र के विषय शब्द प्राप्त होने पर कभी तुष्ट नहीं होना चाहिए और पापक (अशुभ-अमनोज्ञ) शब्द सुनने पर रुष्ट नहीं होना चाहिए ॥ १६ ॥
रूवेसु य भद्दग- पावएसु चक्खुविसयंउवगएसु।
तुह्रण व रुद्वेण व, समणेण सया ण होअव्वं ॥१७॥ शुभ अथवा अशुभ रूप चक्षु के विषय होने पर-दृष्टिगोचर होने पर साधु को कभी न तुष्ट होना चाहिए और न रुष्ट होना चाहिए ॥१७॥
गंधेसु य भद्दग-पावएसु घाणविसयमुवगएसु।
तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१८॥ घ्राण-इन्द्रिय को प्राप्त हुए शुभ अथवा अशुभ गंध में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए॥१८॥
रसेसु य भद्दय-पावएसु जिब्भविसयं उवगएसु।
तुढेण व रुद्रुण व, समणेण सया न होअव्वं ॥१९॥ जिह्वा-इन्द्रिय के विषय को प्राप्त शुभ अथवा अशुभ रसों में साधु को कभी तुष्ट अथवा रुष्ट नहीं होना चाहिए ॥ १९॥
फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगएसु।
तुह्रण व रुद्रेण व, समणेण सया व होअव्वं ॥२०॥ स्पर्शनेन्द्रिय के विषय बने हुए प्राप्त शुभ अथवा अशुभ स्पर्शों में साधु को कभी तुष्ट या रुष्ट नहीं होना चाहिए ॥ २०॥
अभिप्राय यह है कि पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय का मनोज्ञ विषय प्राप्त होने पर प्रसन्नता का और अमनोज्ञ विण्य प्राप्त होने पर अप्रसन्नता का अनुभव नहीं करना चाहिए, किन्तु दोनों अवस्थाओं में समभाव धारण करना चाहिए ॥२०॥
३१ -एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि।
सुधर्मास्वामी अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं-'जम्बू! निश्चय ही यावत् मुक्ति को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सत्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है। वही अर्थ मैं तुझसे कहता हूँ।'
॥ सत्रहवाँ अध्ययन समाप्त ॥
१. टीकाकार ने इन बीस गाथाओं को प्रकृत वाचना की न मान कर वाचानान्तर की स्वीकार की है।