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________________ सत्रहवां अध्ययन : आकीर्ण] [४७५ जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे वहाँ-वहाँ उन कौटुम्बिकं पुरुषों ने बहुत से कोष्ठपुट तथा दूसरे घ्राणेन्द्रिय के प्रिय पदार्थों के पुंज (ढेर) और निकर(बिखरे हुए समूह) कर दिये। उनके पास चारों ओर जाल बिछाकर वे मूक होकर छिप गये। २०-जत्थ जत्थ णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिटुंति वा, तुयटृति वा, तत्थ तत्थ गुलस्स जाव, अन्नेसिंच बहूणं जिब्भिंदियपाउग्गाणंदव्वाणं पुंजे यणियरे य करेंति, करित्ता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स पोरपाणगस्स अन्नेसिंच बहूणं पाणगाणं वियरे भरेंति, भरित्ता तेसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेंति जाव चिटुंति। जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे, वहाँ-वहाँ कौटुम्बिक पुरुषों ने गुड़ के यावत् अन्य बहुत-से जिह्वेन्द्रिय के योग्य पदार्थों के पुंज और निकर कर दिये। करके उन जगहों पर गड़हे खोदे। खोद कर गुड़ का पानी, खांड का पानी, पोर (ईख) का पानी तथा दूसरा बहुत तरह का पानी उन गड़हों में भर दिया। भरकर उनके पास चारों ओर जाल स्थापित करके मूक होकर छिप रहे। २१-जहिं जहिं च णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिटुंति वा, तुयटेति वा, तहिं तहिं च णं ते बहवे कोयवया य जाव सिलावट्टया अण्णाणि य फासिंदियपाउग्गाइं अत्थुयपच्चत्थुयाइं ठवेंति, ठवित्ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति। जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे यावत् लोटते थे, वहाँ-वहाँ कोयवक (रुई के वस्त्र) यावत् शिलापट्टक (चिकनी शिला) तथा अन्य स्पर्शनेन्द्रिय के योग्य आस्तरण-प्रस्यास्तरण (एक दूसरे के ऊपर बिछाए हुए वस्त्र) रख दिये। रख कर उनके पास चारों ओर जाल बिछा कर एवं मूक होकर छिप गए। २२-तए णं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं अत्थेगइया आसा अपुव्वा णं इमे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा' इति कटुतेसु उक्किट्ठेसुसद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसुअमुच्छिया अगढिया अगिद्धा अणज्झोववण्णा, तेसिं उक्किट्ठाणं सद्द जाव गंधाणं दूरंदूरेणं अवक्कमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं विहरंति। ___ तत्पश्चात् वे अश्व वहाँ आये, जहाँ यह उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध (वाली वस्तुएं) रखी थीं। वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्व 'ये शब्द, स्पर्श, रस रूप और गंध अपूर्व हैं', अर्थात् पहले कभी इनका अनुभव नहीं किया है, ऐसा विचार कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूछित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से दूर चले गये। वे अश्व वहाँ जाकर बहुत गोचर (चरागाह) प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे। कथानक का निष्कर्ष २३-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा सद्द-फरिस-रस-रूव
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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