________________
सत्रहवाँ अध्ययन : आकीर्ण]
[४७१
वे उछल रहे थे।
नौकावणिकों आदि ने ऐसे सैकड़ों घोड़े वहाँ देखे।
इस वेढ़ का अर्थ करने के पश्चात् अन्त में अभयदेवसूरि लिखते हैं-'गमनिकामात्रमेतदस्य वर्णकस्य भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्यः' अर्थात् इस वर्णक का यह अर्थमात्र दिया गया है, भावार्थ तो बहुश्रुत विद्वान ही जानें।
१०-तए णं ते संजत्ताणावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी-'किण्हं अम्हे देवाणुप्पिया! आसेहिं ? इमे णं बहवे हिरण्णगरा य, सुवण्णागरा य, रयणागरा य वइरागरा य, तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रसणस्स य, वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए'त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमढं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रयणस्स य, वइरस्स य तणस्स य, अण्णस्स य, कट्ठस्स य, पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति, भरित्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयवहणपट्ठणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेंति, लंबित्ता सगडीसागडं सज्जेति, सज्जित्ता तं हिरण्णं जाव वइरं व एगट्ठियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति, संचारित्ता सगडीसागडं संजोइंति, संजोइत्ता जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हत्थिसीसयस्स नयरस्स बहिया अग्गुजाणे सत्थणिवेसं करेंति करित्ता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव [महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं] पाहुडं गेण्हंति गेण्हित्ता हत्थिसीसं नयरं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जाव उवणेति।
तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों के आपस में इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है? अर्थात् कुछ भी नहीं। यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की खानें, सोने की खाने, रत्नों की खानें और हीरों की खाने हैं। अतएव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार की। अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से-स्वर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया। भर कर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आये। आकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डाल कर गाड़ी-गाड़े तैयार किये। तैयार करके लाये हुए उस हिरण्य-स्वर्ण, यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया अर्थात् पोतवहन से गाड़े-गाड़ियों में भरा। फिर गाड़ी-गाड़े जोते। जोतकर जहाँ हस्तिशीर्ष नगर था वहाँ पहुँचे। हस्तिशीर्ष नगर के बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया। गाड़ी-गाड़े खोले। फिर बहुमूल्य [महान् पुरुषों के योग्य, विपुल एवं नृपतियोग्य] उपहार लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास आये। वह उपहार राजा के समक्ष उपस्थित किया।
· ११-तए णं से कणगकेऊ तेसिं संजत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ।
राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य [महान् पुरुषों के एवं राजा के योग्य विपुल] उपहार को स्वीकार किया।