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जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं किन्तु मुक्ति को वरण नहीं कर सकते हैं।
प्रस्तुत अध्ययन में धन्य सार्थवाह अपने साथ उन सभी व्यक्तियों को ले जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी, जो स्वयं व्यापार आदि हेतु जा नहीं सकते थे। इनमें पारस्परिक सहयोग की भावना प्रमुख है, सार्थसमूह में अनेक मतों के माननेवाले परिव्राजक भी थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय विविध प्रकार के परिव्राजक अपने मत का प्रचार करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान भी जाते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं१. चरक—जो जूथ बन्द घूमते हुए भिक्षा ग्रहण करते थे और खाते हुए चलते थे । व्याख्याप्रज्ञप्ति में चरक परिव्राजक धायी हुई भिक्षा ग्रहण करते और लंगोटी लगाते थे । प्रज्ञापना में चरक आदि परिव्राजकों को कपिल का पुत्र कहा है। आचारांग चूर्णि में लिखा है- सांख्य चरण के भक्त थे । वे परिव्राजक प्रात:काल उठकर स्कन्द आदि देवताओं के गृह का परिमार्जन करते, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूप आदि करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद्' में भी चरक का उल्लेख मिलता है। पं. बेचरदास जी दोशी ने चरक को त्रिदण्डी, कच्छनीधारी या कौपीनधारी तापस माना है ।
२. चीरिक - पथ में पड़े हुए वस्त्रों को धारण करने वाला या वस्त्रमय उपकरण रखने वाला ।
३. चर्मखंडित - चमड़े के वस्त्र और उपकरण रखने वाला ।
४. भिच्छ्रंड (भिक्षोंड) - केवल भिक्षा से ही जो जीवननिर्वाह करते हैं, किन्तु गोदुग्ध आदि रस ग्रहण नहीं करते। कितने ही स्थलों पर बुद्धानुयायी को भिक्षुण्ड कहा है। •
५. पण्डुरंग - जो शरीर पर भस्म लगाते हैं। निशीथचूर्णि में गोशालक के शिष्यों को पंडुरभिक्खु लिखा हैं । अनुयोगद्वारचूर्णि में पंडुरंग को ससरक्ख भिक्खुओं का पर्यायवाची माना है। शरीर पर श्वेत भस्म लगाने के कारण इन्हें पंडुरंग या पंडरभिक्षु कहा जाता था। उद्योतनसूरि की दृष्टि से गाय के दही, दूध, गोबर, घी आदि को मांस की भाँति समझकर नहीं खाना पंडरभिक्षुओं का धर्म था ।
६. गौतम - अपने साथ बैल रखने वाले । बैल को इस प्रकार की शिक्षा देते जो विविध तरह की करामात दिखाकर जन-जन के मन को प्रसन्न करते । उससे आजीविका चलाने वाले ।
७. गो- व्रती - " रघुवंश" में राजा दिलीप का वर्णन है कि जब गाय खाये तो खाना, पानी पिये तो पानी पीना, वह जब नींद ले तब नींद लेना और वह जब चले तब चलना । इस प्रकार व्रत रखने वाले ।
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति १-२ - पृ. ४९ ३. (क) आचारांगचूर्णि ८ - पृ. २६५
२. प्रज्ञापना २०. बृ. १२१४
(ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति भा. १, पृ. ८७ ५. निशीथचूर्णि १३, ४४२० (ख) २, १०८५
४. बृहद्. उप.
६. अनुयोगद्वारचूर्णि. पृ. १२
(१) जर्नल आफ द ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट पूना २६, नं. २ पृ. ९२०
(२) कुवलयमाला २०६ / ११
७. आचारांगचूर्णि २-२ - पृ. ३४६
८. गावीहि समं निग्गमपवेससयणासणाइ पकरेंति ।
भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहविन्ता ।
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औपपातिक टीका, पृ. १६९
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