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[ज्ञाताधर्मकथा
पत्र देना। फिर कपाल पर तीन बल वाली भृकुटि चढ़ा कर, आँखें लाल करके, रुष्ट होकर, क्रोध करके, कुपित होकर और प्रचण्ड रूप धारण कर कहना-'अरे पद्मनाभ! मौत की कामना करने वाले! अनन्त कुलक्षणों वाले! पुण्यहीन ! चतुर्दशी के दिन जन्मे हुए (अथवा हीनपुण्य वाली चतुर्दशी अर्थात् कृष्ण पक्ष की चौदस को जन्मे हुए) श्री, लज्जा और बुद्धि से हीन! आज तू नहीं बचेगा। क्या तू नहीं जानता कि तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहाँ ले आया है? खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी तू द्रौपदी देवी कृष्ण वासुदेव को लौटा दे अथवा युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकल। कृष्ण वासुदेव पांच पाण्डवों के साथ छठे आप द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए अभी-अभी यहाँ आ पहुँचे हैं।'
१८१-तए णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे जाव पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अमरकंकारायहाणिं अणुपविसइ अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-'एस णं सामी! मम विणयपडिवत्ती, इमा अन्ना मम सामियस्स समुहाणत्ति'त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अणुक्कमति, अणुक्कमित्ता कोंतग्गेणं लेहं पणामइ, पणामित्ता जाव कूवं हव्वमागए।
तत्पश्चात वह दारुक सारथी कृष्ण वासदेव के इस प्रकार कहने पर हर्षित और संतष्ट हआ। यावत उसने यह आदेश अंगीकार किया। अंगीकार करके अमरकंका राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश करके पद्मनाभ के पास गया। वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अभिनन्दन किया और कहा-स्वामिन् ! यह मेरी अपनी विनय-प्रतिपत्ति (शिष्टाचार) है। मेरे स्वामी के मुख से कही हुई आज्ञा दूसरी है। वह यह है। इस प्रकार कह कर उसने नेत्र लाल करके और क्रुद्ध होकर अपने वाम पैर से उसके पादपीठ को आक्रान्त किया-ठुकराया। भाले की नोंक से लेख दिया। फिर कृष्ण वासुदेव का समस्त आदेश कह सुनाया, यावत् वे स्वयं द्रौपदी को वापिस लेने के लिए आ पहुँचे हैं।
१८२-तएणं से पउमणामेदारुएणंसारहिणा एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते तिवलिं भिउडिं निडाले साहटु एवं वयासी-'णो अप्पणामिणं अहं देवाणुप्पिया! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवइं, एस णं अहं सयमेव जुज्झसजो निग्गच्छामि, त्ति कटु दारुयं सारहिं एवं वयासी-'केवलं भो! रायसत्थेसु दूए अवज्झे' त्ति कटु असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं णिच्छुभावेइ।
तत्पश्चात् पद्मनाभ ने दारुक सारथि के इस प्रकार कहने पर नेत्र लाल करके और क्रोध से कपाल पर तीन सल वाली भृकुटी चढ़ा कर कहा–'देवानुप्रिय! मैं कृष्ण वासदेव को द्रौपदी वापिस नहीं दूंगा। मैं स्वयं ही युद्ध करने के लिए सज्ज होकर निकलता हूँ।' इस प्रकार कहकर फिर दारुक सारथि से कहा-'हे दूत! राजनीति में दूत अवध्य है (केवल इसी कारण मैं तुझे नहीं मारता)।' इस प्रकार कहकर सत्कार-सम्मान न करके-अपमान करके, पिछले द्वार से उसे निकाल दिया।
१८३-तए णं से दारुए सारही पउमनाभेणं असक्कारिय जाव [ असम्माणिय अवद्दारेणं] निच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कण्हं एवं वयासी-‘एवं खलु अहं सामी! तुब्भं वयणेणं जाव णिच्छुभावेइ।'
वह दारुक सारथि पद्मनाभ राजा के द्वारा असत्कृत हुआ, यावत् पिछले द्वार से निकाल दिया गया,