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[ ज्ञाताधर्मकथा
संपरिवुडे महया भडचडगरपहकरविंदपरिक्खित्ते बारवईए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुरच्छिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचर्हि पंडवेहिं सद्धिं गयओ मिलइ, मिलित्ता खंधावारणिवेसं करेइ, करित्ता पोसहसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता सुत्थियं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ ।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए। कोरंट वृक्ष के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र उनके मस्तक के ऊपर धारण किया गया। दोनों पावों में उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे। वे बड़ेबड़े अश्वों, गजों, रथों और उत्तम पदाति-योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना और अन्य सुभटों के समूहों से परिवृत होकर द्वारका नगरी के मध्य भाग में होकर निकले । निकल कर जहाँ पूर्व दिशा का वैतालिक था, वहाँ आए । वहाँ आकर पाँच पाण्डवों के साथ इकट्ठे हुए (मिले) फिर पड़ाव डाल कर पौषधशाला में प्रवेश किया। प्रवेश करके सुस्थित देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करते हुए स्थित हुए।
कृष्ण द्वारा देव का आह्वान
१७५ - तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सट्ठिओ जाव आगओ - 'भण देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं ।'
तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! दोवई देवी जाव पउमनाभस्स रण्णो भवणंसि साहरिया, तं णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि । जं णं अहं अमरकंकारायहाणिं दोवईए देवीए कूवं गच्छामि।'
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव का अष्टमभक्त पूरा होने पर सुस्थित देव यावत् उनके समीप आया। उसने कहा - 'देवानुप्रिय ! कहिए मुझे क्या करना है ?
तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभ राजा के भवन में हरण की गई है, अतएव तुम हे देवानुप्रिय ! पाँच पाण्डवों सहित छठे मेरे छह रथों को लवण समुद्र में मार्ग दो, जिससे मैं ( पाण्डवों सहित) अमरकंका राजधानी में द्रौपदी देवी को वापस छीनने के लिए जाऊँ।'
१७६ ६- तए णं से सुत्थिए देवे कण्हं वासुदेवं एव वयासी - 'किण्णं देवाणुप्पिया ! जहा चेव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगतिएणं देवेणं दोवई देवी जाव [ जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्थिणाउराओ नयराओ जुहिट्ठिलस्स रण्णो भवणाओ ] संहरिया, तहा चेव दोवई देविं धायईसंडाओ दीवाओ भारहाओ [ वासाओ अमरकंकाओ रायहाणीओ पउमनाभस्स रणो भवणाओ ] जाव हत्थिणाउरं साहरामि ? उदाहु पउमनाभं रायं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामि ?'
तत्पश्चात् सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राजा के पूर्व संगतिक देव ने द्रौपदी देवी का [ जम्बूद्वीपवर्ती भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर से युधिष्ठिर राजा के भवन से ]