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________________ [ ४४३ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा- 'देवानुप्रिय ! यह तुम्हारी ही करतूत जान पड़ती है।' कृष्ण वासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी विद्या का स्मरण किया । स्मरण करके जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में चल दिए । द्रौपदी का उद्धार १७० - तए णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेई, सद्दावित्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुमं देवाप्पिया ! हत्थणाउरं, पंडुस्स रण्णो एयमट्टं निवेदेहि - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! धायइसंडे दीवे पुरच्छिमद्धे अमरकंकाए रायहाणीए पउमनाभभवणंसि दोवईए देवीए पउत्ती उवलद्धा । तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरच्छिम-वेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिट्ठतु ।' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया। बुलाकर उससे कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर जाओ और पाण्डु राजा को यह अर्थ निवेदन करो - 'हे देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड द्वीप में पूर्वार्ध भाग में, अमरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है। अतएव पांचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर रवाना हों और पूर्व दिशा के वेतालिक' (लवणसमुद्र) के किनारे मेरी प्रतीक्षा करें।' १७१ – तए णं दूए जाव भणड़ - 'पडिवालेमाणा चिट्ठह ।' ते वि जाव चिट्ठति । तत्पश्चात् दूत ने जाकर यावत् कृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों से प्रतीक्षा करने को कहा। तब पांचों पाण्डव वहाँ जाकर यावत् कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे । १७२ - तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सन्नाहियं भेरि ताडेह ।' ते वि तालेंति । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा - 'देवानुप्रियो !' तुम जाओ और सान्नाहिक (सामरिक) भेरी बजाओ।' यह सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई । १७३ - तए णं तीसे सण्णाहियाए भेरीए सद्दं सोच्चा समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव' छप्पण्णं बलवयंसाहस्सीओ रुत्रद्धबद्ध जावरे गहियाउहपहरणा अप्पेगइया हयगयाज वग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावति । सान्नाहिक भेरी की ध्वनि सुन कर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहन कर तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आये। आकर हाथ जोड़कर यावत् उनका अभिनन्दन किया। १७४ - तए णं कण्हे वासुदेवे हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चउरंगिणीए सेणाए सद्धिं १. जहाँ समुद्र की वेल [ लहर] चढ़ कर गंगा नदी में मिलती है, वह स्थान । २. अ. १६ सूत्र ५६ ३. अ. १६ सूत्र १०७
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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