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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[४४१ करती हैं-तुमसे मिलना चाहती हैं।'
१६२–तएणं ते कोडुंबियपुरिसा जाव कहेंति।तए णं कण्हे वासुदेवे कोडुंबियपुरसाणं अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुटे हत्थिखंधवरगए बारवईए नयरीए मझमझेणंजेणेव कोंती देवी तेणेव उवाच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ, करित्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखंधं दुरूहइ, दुरूहित्ता बारवईए नगरीए मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुपविसइ।
____ तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव के पास जाकर कुन्ती देवी के आगमन का समाचार कहा। कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से कुन्ती देवी के आगमन का समाचर सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए। हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ कुन्ती देवी थी, वहाँ आये, आकर हाथी के स्कंध से नीचे उतरे। नीचे उतर कर उन्होंने कुन्ती देवी के चरण ग्रहण किये-पैर छुए। फिर कुन्ती देवी के साथ हाथी पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना महल था, वहाँ आये। आकर अपने महल में प्रवेश किया।
१६३-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंति देविंण्हायं कयबलिकम्मं जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासणवरगयं एवं वयासी-'संदिसउ णं पिउच्छा! किमागमणपओयणं?'
__कुन्ती देवी जब स्नान करके, बलिकर्म करके और भोजन कर चुकने के पश्चात् सुखासन पर बैठी, तब कृष्ण वासुदेव ने इस प्रकार कहा–'हे पितृभगिनी! कहिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?'
१६४–तए णं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेव एवं वयासी-'एवं खलु पुत्ता! हत्थिणाउरे णयरे जुहिट्ठिल्लस्स आगासतले सुहपसुत्तस्स दोवई देवी पासाओ ण णजइ केणइ अवहिया वा, णीया वा, अवक्खित्ता वा, तं इच्छामि णं पुत्ता! दोवईए देवीए मग्गणगवेसणं कयं।' ।
___ तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र! हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर आकाशतल (अगासी) पर सुख से सो रहा था। उसके पास से द्रौपदी देवी को न जाने कौन अपहरण करके ले गया, अथवा खींच ले गया। अतएव हे पुत्र! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदी देवी की मार्गणा-गवेषणा करो।' ।
____१६५–तएणं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं पिउच्छि एवं वयासी-जनवरं पिउच्छादोवईए देवीए कत्थइ सुई वा जाव [ खुइं वा पवित्तिं वा] लभामि तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा समंतओ दोवइंसाहत्थिं उवणेमि'त्ति कटुकोंति पिउच्छि सक्कारेइ, सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी (फूफी) कुन्ती से कहा-'भुआजी! अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति (शब्द) यावत् [छींक आदि ध्वनि या समाचार] पाऊँ, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले जाऊँगा।' इस प्रकार कह कर उन्होंने कुन्ती भुआ का सत्कार किया, सम्मान किया, यावत् उन्हें विदा किया।
१६६-तए णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया।