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[ज्ञाताधर्मकथा मूठ विचित्र मणि-रत्नों से जटित थी] । उस दर्पण में जिस-जिस राजा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, उस प्रतिबिम्ब द्वारा दिखाई देने वाले श्रेष्ठ सिंह के समान राजा को अपने दाहिने हाथ से द्रौपदी को दिखलाती थी। वह धाय स्फुट (प्रकट अर्थ वाले) विशद (निर्मल अक्षरों वाले) विशुद्ध (शब्द एवं अर्थ के दोषों से रहित) रिभित (स्वर की घोलना सहित) मेघ की गर्जना के समान गंभीर और मधुर (कानों को सुखदायी) वचन बोलती हुई, उन सब राजाओं के माता-पिता के वंश, सत्त्व (दृढ़ता एवं धीरता) सामर्थ्य (शारीरिक बल) गोत्र पराक्रम कान्ति नाना प्रकार के ज्ञान माहात्म्य रूप यौवन गुण लावण्य कुल और शील को जानने वाली होने के कारण उनका बखान करने लगी।
१२३–पढमं जाव वण्हिपुंगवाणं दसदसारवरवीरपुरिसाणं तेलोक्कबलवगाणं सत्तुसयसहस्स-माणावमद्दगाणं भवसिद्धिय-पवरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बल-वीरिय-रूप-जोव्वणगुण-लावण्ण-कित्तिया कित्तणं करेइ, ततो पुणो उग्गसेणमाईणंजायवाणं, भणइ य-'सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हियय-दइयो।'
। उनमें से सर्वप्रथम वृष्णियों (यादवों) में प्रधान समुद्रविजय आदि दस दसारों अथवा दसार के श्रेष्ठ वीर-पुरुषों के, जो तीनों में बलवान् थे, लाखों शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले थे, भव्य जीवनों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान प्रधान थे, तेज से देदीप्यमान थे, बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण और लावण्य का कीर्तन करने वाली उस धाय ने कीर्तन किया और फिर उग्रसेन आदि यादवों का वर्णन किया, तदनन्तर कहा- 'ये यादव सौभाग्य और रूप से सुशोभित हैं और श्रेष्ठ पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं। इनमें से कोई तेरे हृदय को वल्लभप्रिय हो तो उसे वरण कर।' पाण्डवों का वरण
१२४-तए णंसा दोवई रायवरकन्नगा बहूणं रायवरसहस्साणं मझमझेणंसमतिच्छमाणी समतिच्छमाणी पुवकयनियाणेणं चोइज्जमाणी चोइजमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्धवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेढियपरिवेढियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-एए णं मए पंच पंडवा वरिया।'
तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी अनेक सहस्र श्रेष्ठ राजाओं के मध्य में होकर, उनका अतिक्रमण करती-करती, पूर्वकृत निदान से प्रेरित होती-होती, जहाँ पाँच पाण्डव थे, वहाँ आई। वहाँ आकर उसने उन पांचों पाण्डवों को, पँचरंगे कुसुमदाम-फूलों की माला-श्रीदामकाण्ड-से चारों तरफ से वेष्टित कर दिया। वेष्टित करके कहा-'मैंने इन पाँचों पाण्डवों का वरण किया।' ।
१२५–तए णं तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणि रायसहस्साणि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयंति-'सुवरियं खलु भो! दोवईए रायवरकन्नाए' त्ति कट्ट सयंवरमंडवाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेवसया सया आवासा तेणेव उवागच्छंति।'
____ तत्पश्चात् उन वासुदेव प्रभृति अनेक सहस्र राजाओं ने ऊँचे-ऊँचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए कहा-'अहो! राजवरकन्या द्रौपदी ने अच्छा वरण किया!' इस प्रकार कह कर वे स्वयंवरमण्डप से बाहर निकले। निकल कर अपने-अपने आवासों में चले गये।