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________________ ४१०] [ ज्ञाताधर्मकथा कौटुम्बिक पुरुषों को कहा- ' -'देवानुप्रियो ! यह भिखारी पुरुष क्यों जोर-जोर से चिल्ला रहा है ?' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा - 'स्वामिन्! उस सिकोरे के टुकड़े और घट के ठीकरे को एक ओर डाल देने के कारण वह जोर-जोर से चिल्ला रहा है।' तब सागरदत्त सार्थवाह ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा'देवानुप्रियो ! तुम उस भिखारी के उस सिकोरे और घड़े के खंड को एक ओर मत डालो, उसके पास रख दो, जिससे उसे प्रतीति हो - विश्वास रहे ।' यह सुनकर उन्होंने वे टुकड़े उसके पास रख दिए । ६३ - तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करित्ता सयपागसहस्सपगेर्हि तेल्लेहिं अब्धंगति, अब्भंगिए समाणे सुरभिगंधुव्वट्टणेणं गायं उव्वट्टिति उव्वट्टित्ता उसिणोदगगंधोदएणं ण्हाणेंति, सीतोदगेणं ण्हाणेंति, ण्हाणित्ता पम्हलसुकुमालगंधकासाईए गाया हंता, लूहित्ता हंसलक्खणं पट्टसाडगं परिर्हेति, परिहित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं भोयावेंति भोयावित्ता सागरदत्तस्स उवणेंति । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म (हजामत आदि) कराया। फिर शतपाक और सहस्रपाक (सौ या हजार मोहरें खर्च करके या सौ या हजार औषध डालकर बनाये गये) तेल से अभ्यंगन (मर्दन) किया। अभ्यंगन हो जाने पर सुवासित गंधद्रव्य के उबटन से उसके शरीर का उबटन किया। फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया। स्नान करवाकर बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा। फिर हंस लक्षण (श्वेत) वस्त्र पहनाया। वस्त्र पहनाकर सर्व अलंकारों से विभूषित किया | विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन कराया। भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए। ६४ - तए णं सागरदत्ते सूमालियं दारियं ण्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करिता तं दमगपुरिसं एवं वयासी – 'एस णं देवाणुप्पिया ! मम धूया इट्ठा, एयं च णं अहं तव भारियत्ताए दलामि भद्दियाए भद्दओ भविज्जासि ।' - तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है। इसे मैं तुम्हारी भार्या रूप में देता हूँ । तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना । ' पुनः परित्याग ६५ - तए णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमट्ठपडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुपविसइ, सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवज्जइ । तसे दमपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठित्ता वासघराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं सा सूमालिया जाव 'गए णं से दमगपुरिसे' त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा जाव झियाय | उस द्रमक ( भिखारी) पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली। स्वीकार करके सुकुमालिका
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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