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________________ ४००] [ज्ञाताधर्मकथा आया, जो ऐसे अवसर पर आ जाना असंभव नहीं था। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके लिए जो 'उच्छूढसरीरे' विशेषण का प्रयोग किया गया है वह केवल प्रशंसापरक नहीं किन्तु यथार्थता का द्योतक है। (देखिए सूत्र १०)। वास्तव में धर्मरुचि अनगार देहस्थ होने पर भी देहदशा से अतीत थे-विदेह थे। शरीर और आत्मा का पृथक्त्व वे जानते ही नहीं थे, प्रत्युत अनुभव भी करते थे। शरीर का पात होने पर भी आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है, यह अनुभूति उनके जीवन का अंग बन चुकी थी। इसी अनुभूति के प्रबल बल से वे सहज समभाव में रमण करते हुए शरीर-त्याग करने में सफल हुए। ___ जीवन-अवस्था में किये हुए आचरण से संस्कार व्यक्त या अव्यक्त रूप में संचित होते रहते हैं और मरण-काल में वे प्राणी की बुद्धि-भावना-विचारधारा को प्रभावित करते हैं। आगम का विधान है कि जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या के वशीभूत होकर आगामी जन्म लेता है। अन्तिम समय की लेश्या जीवन से संचित संस्कारों के अनुरूप ही होती है। कुछ लोग सोचते हैं-अभी कुछ भी करें, जीवन का अन्त संवार लेंगे, परन्तु यह विचार भ्रान्त है। जीवन का क्षण-क्षण संवारा हुआ हो तो अन्तिम समय संवरने की संभावना रहती है। कुछ अपवाद हो सकते हैं किन्तु वे मात्र अपवाद ही हैं। नागश्री ने एक उत्कृष्ट संयमशील साधु का जान-बूझ कर हनन किया। यह अधमतम पाप था। इसका भयंकर से भयंकर फल उसे भुगतना पड़ा। उसे समस्त नरकभूमियों में, उरग, जलचर, खेचर, असंज्ञी, संज्ञी आदि पर्यायों में अनेक-अनेक बार जन्म-मरण की दुस्सह यातनाएँ सहन करनी पड़ी। प्रस्तुत सूत्र में पाठ कुछ संक्षिप्त है। प्रतीत होता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि के समक्ष दोनों पाठ विद्यमान थे। वे अपनी टीका में लिखते हैं-'गोशालकाध्ययनसमानं' सूत्रं ततएव दृश्य, बहुत्वात्तु न लिखितम्।' अर्थात् नागश्री के भवभ्रमण का वृत्तान्त बहुत विस्तृत है, अतः उसे यहाँ लिखा नहीं गया है, परन्तु गोशालक-अध्ययन (भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक) के अनुसार वह वर्णन जान लेना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में जाव' शब्दों के प्रयोग द्वारा उसको ग्रहण कर लिया गया है। कहीं-कहीं प्रस्तुत सूत्र में आए जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव' इस पाठ के स्थान पर निम्नलिखित पाठ अधिक उपलब्ध होता है __ 'रयणप्पभाओ पुढवीओ उव्वट्टित्ता सण्णीसु उववन्ना। तओ उव्वट्टित्ता असण्णीसु उववन्ना। तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखिज्जइभागट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा। तओ उव्वट्टित्ता जाइं इमाई खहयरविहाणाई......' ___ इसका अर्थ इस प्रकार है-वह नागश्री रत्नप्रभा पृथ्वी से उद्वर्तन करके-निकलकर संज्ञी जीवों में उत्पन्न हुई। वहां से मरण-प्राप्त होकर असंज्ञी प्राणियों में जन्मी। वहाँ भी उसका शस्त्र द्वारा वध किया गया। उसके शरीर में दाह उत्पन्न हुआ। यथासमय मरकर दूसरी बार रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नारकों में नारक-पर्याय में जन्मी। वहाँ से निकलकर खेचरों की योनियों में उत्पन्न हुई। -अंगसुत्ताणि, तृतीय भाग पृ. २८० सुकुमालिका का कथानक ___ ३४-सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, चंपाए नयरीए, सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया। तए णं सा भद्दा
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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