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पन्द्रहवाँ अध्ययन : नन्दीफल ]
सुख-पूर्वक अहिच्छत्रा नगरी तक पहुँचाएगा।
दो बार और तीन बार ऐसी घोषणा कर दो। घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ - मुझे सूचित करो । '
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६–तएं णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव एवं वयासी - हंदि ! सुणंतु भगवंतो चंपानगरीवत्थव्वा बहवे चरगा य जाव पच्चप्पिणंति ।
तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् इस प्रकार घोषणा की - ' हे चम्पा नगरी के निवासी भगवंतो! चरक आदि ! सुनो, इत्यादि कहकर पूर्वोक्त घोषणा करके उन्होंने धन्य - सार्थवाह की आज्ञा उसे वापिस सौंपी।
७- तणं से कोडुंबियघोसणं सुच्चा चंपाए णयरीए बहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छंति । तए णं धण्णे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव पत्थयणं दलयइ । दलइत्ता एवं वयासी - 'गच्छह णं देवाणुप्पिया ! चंपा नयरी बहिया अग्गुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा चिट्ठह ।'
कौटुम्बिक पुरुषों की पूर्वोक्त घोषणा सुनकर चम्पा नगरी के बहुत-से चरक यावत् गृहस्थ धन्यसार्थवाह के समीप पहुँचे। तब उन चरक यावत् गृहस्थों में से जिनके पास जूते नहीं थे, उन्हें धन्य- सार्थवाह ने जूते दिलवाये, यावत् पथ्यदन दिलवाया। फिर उनसे कहा- -'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और चम्पा नगरी के बाहर उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो । '
धन्य - सार्थवाह का प्रस्थान
८ – तरणं चरगाय जाव गिहत्था य धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा जाव चिट्ठति ।
तएणं धण्णे सत्थवाहे सोहणंसि तिहि करण - नक्खत्तंसिविडलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ [ नियग-सयण-संबन्धि-परियणं] आमंतेइ, आमंतित्ता भोयणं भोयावेइ, भोयावित्ता आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सगडीसागडं जोयावेइ, जोयावित्ता चंपानगरीओ निग्गच्छइ । निग्गच्छित्ता णाइविप्पगिट्ठेहिं अद्धाणेहिं वसमाणे वसमाणे सुहेहिं वसहिपायरासेहिं अंगं जणवयं मज्झंमज्झेणं जेणेव देसग्गं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सगडीसागडं मोयावेइ, मोयावित्ता सत्थणिवेसं करेइ, करित्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी
तदनन्तर वे पूर्वोक्त चरक यावत् गृहस्थ आदि धन्य- सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर प्रधान उद्यान में पहुँचकर उसकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे।
तब धन्ये- सार्थवाह ने शुभ तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनवाया । बनवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमन्त्रित करके उन्हें जिमाया। जिमा कर उनसे अनुमति ली । अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जुतवाये और फिर चम्पा नगरी से बाहर निकला। निकल कर बहुत दूर-दूर पर पड़ाव न करता हुआ अर्थात् थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में बसता-बसता, सुखजनक वसति (रात्रिवास) और