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________________ ३७४] [ज्ञाताधर्मकथा धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र! हम कहाँ जाएँ? कहाँ शरण लें? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर भय का वायुमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल ने दिखाई दे, उसे क्या करना चाहिए? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है? ५१–तएणं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलं देवं एवं वयासी-'भीयस्स खलु भो पव्वजा सरणं, उक्कंठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसन्जं, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणं किच्चं', परं अभिओजितकामस्स सहायकिच्चं.खंतस्स दंतस्स जिडंदियस्स एत्तो एगमविण भवढ़। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो! इस प्रकार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है। जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को औषध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को (जिस पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो उसे) विश्वास उपजाना, थके-मांदे को वाहन पर चढ़ कर गमन कराना, तिरने के इच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करने वाले को सहायकृत्य (मित्रों की सहायता) शरणभूत है। क्षमाशील, इन्द्रियदमन करने वाले, जितेन्द्रिय (इन्द्रियविषयों में राग-द्वेष न करने वाले) को इनमें से कोई भय नहीं होता। विवेचन-सर्वत्र भयग्रस्त को दीक्षा क्यों शरणभूत है? इसका स्पष्टीकरण यह है कि क्रोध का निग्रह करने वाले क्षमाशील, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाले तथा जितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों के विषय में राग न रखने वाले पुरुष को इनमें से एक भी भय नहीं है। भय काया और माया के लिए ही होता है। जिसने दोनों की ममता त्याग दी, वह सदैव और सर्वत्र निर्भय है। प्रस्तुत सूत्र ४६ से तेतलिपुत्र का जो वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त विस्मयजनक है, पर यह सब दैवी माया का चमत्कार ही समझना चाहिए। दैवी चमत्कार तर्क की सीमा से बाहर एवं बुद्धि की परिधि में नहीं आने वाला होता है। ५२-तएणं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-सुठु णं तुमंतेयलिपुत्ता! एयमटुंआयाणाहित्तिकटु दोच्चं पितच्चं पिएवं वयइ, वइत्ताजामेव दिसंपाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र! तुम ठीक कहते हो। अर्थात् भयग्रस्त के लिए प्रवज्या शरणभूत है, यह तुम्हारा कथन सत्य है। मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, अर्थात् इस समय तुम भयभीत हो तो तदनुसार आचरण करके यह बात समझो-दीक्षा ग्रहण करो। इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा। कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा में वापिस लौट गया। ५३–तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने। तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुष्पन्ने–'एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामंराया होत्था।तएणं अहं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव [ पव्वइए सामाइयमाझ्याइ] चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि १. पाठान्तर–'पवहणकिच्चं।'
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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